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________________ ૮૦૨ तस्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ 2012-8 आठ स्पर्श देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य अगुरुलघु उपघात परघात उच्छास प्रशस्त विहायोगति अपर्याप्त प्रत्येकशरीर स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ दुर्भग सुखर-दुःखर अनादेय अयशस्कीर्ति निर्माण और नीच गोत्रसंज्ञक ७२ प्रकृतियोंका अयोगकेवलीके उपान्त्य समयमें विनाश होता । कोई एक वेदनीय मनुष्यायु मनुष्यगति पंचेन्द्रियजाति मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य त्रस बादर पर्याप्त सुभग आदेय यशस्कीर्ति तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियोंका अयोगकेवलीके चरम समय में व्युच्छेद होता है । औपशमिकादिभव्यत्वानाश्च ॥ ३ ॥ १. भव्यत्वका ग्रहण इसलिये किया है कि जीवत्व आदिकी निवृत्तिका प्रसंग न आवे । अतः पारिणामिकों में भव्यत्व तथा औपशमिक आदि भावोंका अभाव भी मोक्ष में हो जाता है । प्रश्न -- कर्मद्रव्यका निरास होनेसे तन्निमित्तक भावों की निवृत्ति अपने आप ही हो जायगी, फिर इस सूत्र के बनानेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर--निमित्तके अभाव में नैमित्तिकका अभाव हो ही ऐसा नियम नहीं है । फिर जिसका अर्थात् ही ज्ञान हो जाता है उसकी साक्षात् प्रतिपत्ति करानेके लिए और आगेके सूत्रकी संगति बैठानेके लिए औपशमिकादि भावों का नाम लिया है । अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ $१-२. अन्यत्र शब्द 'वर्जन' के अर्थ में है, इसीलिए पंचमी विभक्ति भी दी गई है। यद्यपि अन्य शब्दका प्रयोग करके पंचमी विभक्तिका निर्वाह हो सकता था पर 'त्र' प्रत्यय स्वार्थिक है, अर्थात् केवल सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन और सिद्धत्वसे भिन्नके लिए उक्त प्रकरण है । १३. ज्ञान दर्शनके अविनाभावी अनन्तवीर्य आदि 'अनन्त' संज्ञक गुण भी गृहीत हो जाते हैं अर्थात् उनकी भी निवृत्ति नहीं होती । अनन्तवीर्यसे रहित व्यक्तिके अनन्तज्ञान नहीं हो सकता और न अनन्त सुख ही; क्योंकि सुख तो ज्ञानमय ही है । १४ - ६. जैसे घोड़ा एक बन्धनसे छूट कर भी फिर दूसरे बन्धनसे बँध जाता है उस तरह जीवमें पुनर्बन्धकी आशंका नहीं है; क्योंकि मिथ्यादर्शन आदि कारणों का उच्छेद होने से बन्धनरूप कार्यका सर्वथा अभाव हो जाता है । इसी तरह भक्ति स्नेह कृपा और स्पृहा आदि रागविकल्पों का अभाव हो जानेसे वीतरागके जगत्के प्राणियोंको दुःखी और कष्ट अवस्थामें पड़ा हुआ देखकर करुणा और तत्पूर्वक बन्ध नहीं होता । उनके समस्त आस्रवोंका परिक्षय हो गया । बिना कारणके हो यदि मुक्त जीवोंको बन्ध माना जाय तो कभी मोक्ष ही नहीं हो सकेगा । मुक्तिप्राप्त बाद भी बन्ध हो जाना चाहिये । ९७-८ स्थानवाले होनेसे मुक्तजीवोंका पात नहीं हो सकता; क्योंकि वे अनास्रव हैं। आस्रववाले ही यानपात्रका अधःपात होता है। अथवा, वजनदार ताड़फल आदिका प्रतिबन्धक डण्ठलसंयोग आदिके अभावमें पतन होता है, गुरुत्वशून्य आकाशप्रदेश आदिका नहीं । मुक्तजीव भी गुरुत्वरहित हैं । यदि मात्र स्थानवाले होनेसे पात हो तो सभी धर्मादिद्रव्योंका पात होना चाहिये । ६९ - २१. अवगाहनशक्ति होनेके कारण अल्प भी अवकाशमें अनेक सिद्धोंका अवगाह हो जाता है। जब मूर्तिमान् भी अनेक प्रदीप प्रकाशोंका अल्प आकाशमें अविरोधी अवगाह देखा गया है तब अमूर्त सिद्धोंकी तो बात ही क्या है ? इसीलिये उनमें जन्म-मरण आदि द्वन्द्वोंकी बाधा नहीं है; क्योंकि मूर्त अवस्था में ही प्रीति परिताप आदि बाधाओंकी सम्भावना थी, पर सिद्ध अव्याबाध होनेसे परमसुखी हैं । जैसे परिमाण एक प्रदेश से बढ़ते-बढ़ते आकाश में अनन्तत्वको प्राप्त हो जाता है और उसका कोई उपमान नहीं रहता उसी तरह संसारी जीवोंका
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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