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________________ १००५-७ ] दसवाँ अध्याय सुख सान्त और सोपमान तथा प्रकर्ष अप्रकर्षवाला हो सकता है पर सिद्धोंका सुख परम अनन्तपरिमाणवाला निरतिशय है। १२-१६. मुक्त जीव चूंकि अनन्तर अतीत शरीरके आकार होते हैं अतः अनाकार होनेके कारण उनका अभाव नहीं किया जा सकता। लोकाकाशके समान असंख्य प्रदेशी जीवको शरीरानुविधायी माननेपर शरीरके अभावमें विसर्पण-फैलनेका प्रसंग भी नहीं आता; क्योंकि नामकर्मके सम्बन्धसे आत्मप्रदेशोंका गृहीत शरीरके अनुसार छोटे-बड़े सकोरे घड़े आदि आवरणोंमें दीपककी तरह संकोच और विस्तार होता है, पर मुक्त जीवके फिर फैलनेका कोई कारण नहीं है । मूर्त दीपकका दृष्टान्त आत्मामें भी लागू हो जाता है ; क्योंकि आत्मा उपयोगस्वभाव. की दृष्टिसे अमूर्त होकर भी कर्मबन्धकी दृष्टिसे मर्त है। कहा भी होकर भी लक्षणकी दृष्टिसे शरीर और जीव जुदे-जुदे हैं । अतः आत्मामें एकान्तसे अमूर्तभाव नहीं है।" अतः कथश्चित् मूर्त होनेसे दृष्टान्त समान ही है। जैसे चन्द्रमुखी कन्या कहनेसे एक प्रियदर्शनत्वके सिवाय अन्य चन्द्रगुणोंकी विवक्षा नहीं है उसो तरह प्रदीपकी तरह संहारविसर्प कहनेसे आत्मामें अनित्यत्वका प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि दृष्टान्तके सभी धर्म दार्टान्तमें नहीं आते, यदि सभी धर्म आ जायँ तो वह दृष्टान्त ही नहीं कहा जा सकता। १७. प्रश्न-जैसे बत्ती तेल और अग्नि आदि सामग्रीसे जलनेवाला दीपक सामग्रीके अभावमें किसी दिशा या विदिशाको न जाकर वहीं अत्यन्त विनाशको प्राप्त हो जाता है उसी तरह कारणवश स्कन्ध सन्ततिरूपसे प्रवर्तमान स्कन्धसमूह-जिसे जीव कहते हैं, क्लेशका क्षय हो जानेसे किसी दिशा या विदिशाको न जाकर वहीं अत्यन्त प्रलयको प्राप्त हो जाता है ? उत्तर-प्रदीपका निरन्वय विनाश भी असिद्ध है जैसे कि मुक्त जीवोंका । दीपक रूपसे परिणत पुद्गलद्रव्यका भी विनाश नहीं होता। उनकी पुद्गलजाति बनी रहती है । जैसे हथकड़ी-बेड़ी आदिसे मुक्त देवदत्तंका स्वरूपावस्थान देखा जाता है उसी तरह कर्मवन्धके अभावसे आत्माका स्वरूपावस्थान होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है । अतः यह शंका भी निर्मूल है कि जहाँ कर्मबन्धका अभाव हो वहीं मुक्तजीवको ठहरना चाहिये; क्योंकि अभी यह प्रश्न विचारणीय है कि उसे वहीं ठहरना चाहिए या बन्धाभाव और अनाश्रित होनेसे उसे गमन करना चाहिये। . 'गौरव न होनेसे अधोगति तो उसकी होती नहीं और योग न होनेसे तिरछी आदि भी गति नहीं हैं; अतः वहीं ठहरना चाहिये', इस आशंकाके निवारणार्थ सूत्र कहते हैं तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ १-२. तत्-कर्मोंका विप्रमोक्ष होते ही आत्मा समस्त कर्मभारसे रहित होनेके कारण लोकाकाश पर्यन्त ऊर्ध्व गमन करता है । यहाँ आङ, अभिविधि अर्थमें है । कैसे ? पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वात् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥६॥ आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ ६१. हेतु और दृष्टान्तोंका क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिये। २. जैसे तुम्हारके हाथ हटा लेनेपर भी चक्र पूर्वप्रयोगके कारण संस्कारक्षयतक बराबर घूमता रहता है उसी तरह संसारी आत्माने जो अपवर्ग प्राप्तिके लिए अनेकबार प्रणिधान और यत्न किये हैं उनके कारण उसका ऊर्ध्वगमन होता है। ३-४. जैसे मिटीके लेपसे वजनदार लँबड़ी पानीमें डूब जाती है पर ज्योंही मिट्टीका लेप घुल जाता है त्योंही वह ऊपर आ जाती है उसी तरह कर्मभारसे परवश आत्मा कर्मवश संसारमें इधर-उधर भटकता था पर जैसे ही वह कर्मबन्धनसे मुक्त होता है वैसे ही ऊर्ध्व ४८
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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