SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०] दसवाँ अध्याय कर कमलकी तरह निर्लिप्त और निरुपलेप होकर साक्षात् त्रिकालवर्ती सर्वद्रव्य पर्यायोंका ज्ञाता सर्वत्र अप्रतिहत अनन्तदर्शनशाली कृतकृत्य मेघपटलोंसे विमुक्त शरत्कालीन पूर्णचन्द्रको तरह सौम्यदर्शन और प्रकाशमानमूर्ति केवली हो जाता है। इन केवल ज्ञानदर्शनवाले सशरीरी ऐश्वर्यशाली घातिया कोंके नाशक और वेदनीय आयु नाम और गोत्रकर्मकी सत्तावाले केवलीके बन्धके कारणोंका अभाव और निर्जराके द्वारा समस्त कमांका। मोक्ष होनेको मोक्ष कहा है । झन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां [कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः] ॥२॥ ११-२. मिथ्यादर्शन आदि बन्धहेतुओंके अभावसे नूतन कर्मों का आना रुक जाता है। कारणके अभावसे कार्यका अभाव होता हो है। पूर्वोक्त निर्जराके कारणोंसे संचित काँका विनाश होता है । इन कारणोंसे आयुके बराबर जिनकी स्थिति कर ली गई है ऐसे वेदनीय आदि शेष कर्मोका युगपत् आत्यन्तिक क्षय हो जाता है। ६३. प्रश्न-कर्मवन्ध सन्तान जब अनादि है तो उसका अन्त नहीं होना चाहिये ? उत्तर-जैसे बीज और अंकुरकी सन्तान अनादि होनेपर भी अग्निसे अन्तिम वीजको जला देनेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मवन्ध सन्ततिके अनादि होनेपर भी ध्यानाग्निसे कर्मबीजोंके जला देनेपर भवांकुरका उत्पाद नहीं होता। यही मोक्ष है। कहा भी है-"जैसे बीजके जल जानेपर अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह कर्मबीजके जल जानेपर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता।" कृत्स्नका कर्मरूपसे क्षय हो जाना ही कर्मक्षय है; क्योंकि विद्यमान द्रव्यका द्रव्यरूपसे अत्यन्त विनाश नहीं होता। पायें उत्पन्न और विनष्ट अतः पर्यायरूपसे द्रव्यका व्यय होता है। अतः पुदलद्रव्यकी कर्मपर्यायका प्रतिपक्षी कारणोंके मिलनेसे निवृत्ति होना क्षय है। उस समय पुद्गलद्रव्य अकर्म पर्यायसे परिणत हो जाता है। ४. मोक्षशब्द भावसाधन है। वह मोक्तव्य और मोचकी अपेक्षा द्विविषयक है, क्योंकि वियोग दो का होता है। कृत्स्न अर्थात् सत्ता बन्ध उदय और उदीरणा रूपसे चार भागोंमें बँटे हुए आठों कर्म । कर्मका अभाव दो प्रकारका होता है-एक यत्नसाध्य और दूसरा अयत्नसाध्य । चरमशरीरके नारक तिर्यंच और देवायुका अभाव अयत्नसाध्य है, क्योंकि इनका स्वयं अभाव है। यत्नसाध्य इस प्रकार है-असंयत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में किसी में अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियोंका विषवृक्षवन शुभाध्यवसायरूप तीक्ष्ण फरसेसे समूल काटा जाता है। निद्रानिद्रा प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धि नरकगति तिर्यंचगति एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय ब्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जाति नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य आतप उद्योत स्थावर सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंकी सेनाको अनिवृत्तिबादरसाम्पराय युगपत् अपने समाधिचक्रसे जीतता है और उसका समूल उच्छेद कर देता है। इसके बाद प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ इन आठ कषायोंका नाश करता है। वहीं नपुंसकवेद स्त्रीवेद तथा छह नोकषायोंका क्रमसे क्षय होता है। इसके बाद पुंवेद संज्वलन क्रोध मान और माया क्रमसे नष्ट होती हैं। लोभसंज्वलन सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें नाशको प्राप्त होता है। क्षीणकषाय बीतरागछद्मस्थके उपान्त्य समयमें निद्रा और प्रचला क्षयको प्राप्त होते हैं । पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका वारहवेंके अन्तमें क्षय होता है । कोई एक वेदनीय देवगति औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस कार्मणशरीर छह संस्थान औदारिक-वैक्रियिक आहारक अंगोपांग, छह संहनन पाँच प्रशस्तवर्ण पाँच अप्रशस्तवर्ण दो गन्ध पाँच प्रशस्तरस पाँच अप्रशस्तरस
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy