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________________ दसवाँ अध्याय संवरके बाद निर्जराका स्वतन्त्र प्रकरण इसलिए नहीं बनाया कि प्रायः संवरके कारणोंसे निर्जरा होती है, इसीलिए संवरके प्रकरणमें ही निर्जराका वर्णन कर दिया गया है। मोक्षका वर्णन मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥१॥ संवरके द्वारा जिसकी परम्पराकी जड़ काट दी गई है और चारित्र-ध्यानाग्निके द्वारा जिसकी सत्ताका सर्वथा लोप कर दिया है उस मोहनीयका क्षय हो जानेपर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय होते ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ 'उत्पन्न होता है ऐसा उपदेश दिया गया है। इस वाक्यशेषका अन्वय कर लेना चाहिये। ११-२. मोहक्षयका पृथकप्रयोग क्रमिक क्षयकी सूचना देने के लिए है। पहिले मोहक्षय करके अन्तर्मुहूर्ततक क्षीणकपाय पदको पाकर फिर एक साथ ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तरायका क्षय कर कैवल्य प्राप्त करता है। मोहका क्षय ही मुख्यतया केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है, यह जतानेके लिए पंचमी विभक्तिसे मोहक्षयकी हेतुताका द्योतन किया है। ३. मोहादिका क्षय परिणामविशेषोंसे होता है। पूर्वोक्त तैयारीके साथ परम तपको धारण कर प्रशस्त अध्यवसायसे उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए साधकके शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग बढ़ता है और अशुभ प्रकृतियाँ कृश होकर विलीन हो जाती हैं। कोई वेदकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तगुणस्थानमें सात प्रकृतियोंके उपशमका प्रारम्भ करता है। कोई साधक असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत प्रमत्तसंयत या अप्रमत्त संयत किसी भी गुणस्थानमें सात प्रकृतियोंकाक्षयकर क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो चारित्रमोहका उपशम प्रारम्भ करता है। फिर अथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके उपशमश्रणी चढ़कर अपूर्वकरण-उपशमक व्यपदेशको प्राप्तकर वहाँ नवीनपरिणामोंसे पापकर्मों के प्रकृति स्थिति और अनुभागको क्षीणकर शुभकर्मों के अनुभागको बढ़ाता हुआ अनिवृत्तिबादर साम्परायक गुणस्थानमें जा पहुँचता है। वहाँ नपुंसकवेद स्त्रीवेद नव नोकषाय पुंवेद अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान दो क्रोध दो माया दो लोभ क्रोधसंज्वलन और मानसंज्वलन इन प्रकृतियोंका क्रमशः उपशमन कर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें पहुँचता है। वहाँ प्रथमसमयमें मायासंज्वलनका उपशमकर लोभसंज्वलनको क्षीणकर सूक्ष्मसाम्परायोपशमक कहलाता है। फिर उपशान्तकषायके प्रथम समयमें लोभसंज्वलनका उपशम कर समस्त मोहका उपशम होनेसे उपशान्तकषाय कहलाता है। यहाँ आयुके क्षयसे मरण हो सकता है। अथवा फिर कषायोंकी उदीरणा होनेसे नीचे गिर जाता है। वही या अन्य कोई विशुद्ध अध्यवसायसे अपूर्व उत्साहको धारण करता हुआ पहिलेकी तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर बड़ी भारी विशुद्धिसे क्षपक श्रेणी चढ़ता है । अथाप्रवृत्त आदि तीन करणोंसे अपूर्वकरणक्षपक अवस्थाको प्राप्त कर उससे आगे आठ कपायोंका नाश कर नपुंसक वेद और स्त्रीवेदको उखाड़कर छह नोकषायोंको पुंवेदमें, पुंवेदको क्रोधसंज्वलनमें, क्रोधसंज्वलनको मानमें, मानको मायामें,मायाको लोभमें डालकर क्रमश: क्षय करके अनिवृत्तिबादर साम्परायक क्षपक गुणस्थानमें पहुँचता हुआ लोभसंज्वलनको सूक्ष्म करके सूक्ष्मसाम्परायक हो जाता है। उससे आगे समस्त मोहनीय कर्मका निमूल क्षय करके क्षीणकषायगुणस्थानमें मोहनीय का समस्त भार उतार कर फेंक देता है। वह उपान्त्य समयमें निद्रा प्रचलाका क्षय करके पाँच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका अन्त समयमें विनाश कर अचिन्त्यविभूतियुक्त केवलज्ञान दर्शनस्वभावको निष्प्रतिपक्षीरूपसे प्राप्त
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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