SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९९] नयाँ अध्याय असंस्कृत आधारोंपर व्याधि मार्गश्रम ठण्डी-गर्मी आदि निमित्तक क्लमको दूर करनेके लिए शय्या या आसन लगानेवाले साधुका तिनके आदिसे बाधा होनेपर या खुजली आदि चलनेपर भी दु:ख नहीं मान निश्चल रहना तृणस्पर्शपरीषहजय है। ६२३-२४. जलजन्तुओंकी हिंसाके परिहारके लिए जिनके अस्नानका व्रत है उन परम अहिंसक साधुको पसीनेके मलसे समस्त अंगोंके जल जानेपर दाद, खाज आदि चर्म रोगोंके प्रकोप होनेपर तथा नख रोम दादी, मूंछ आदिमें अनेक बाह्यमलके संपर्कसे चर्मविकार होनेपर भी स्वयं मलके हटानेकी या परके द्वारा हटवाये जानेकी जरा भी इच्छा नहीं करना और सदा कर्ममलको हटानेकी चेष्टा करना मलपरीषहजय है। साधुजन कभी भी पूर्वकृत स्नान अनुलेपन आदिका स्मरण नहीं करते और न अपनी शारीरिक मलीनतासे हीनत्वका ही अनुभव करते हैं। केशलुंचन या केशोंका संस्कार न करनेसे खेद होता है पर यह मलपरीषहमें ही अन्तर्भूत है अतः उसको पृथक् नहीं गिनाया है। २५. 'चिरब्रह्मचर्यधारी महातपस्वी स्वपरसमयनिश्चयज्ञ हितोपदेशी कथामार्गकुशल तथा बहुशास्त्रार्थविजयी भी मुझे कोई प्रणाम भक्ति आदर आसन-प्रदान आदि नहीं करता' इस प्रकारकी दुर्भावनाको मनमें न लाकर मानअपमानमें समचित्तवृत्तिसे सत्कार पुरस्कारकी आकांक्षा न करना, मात्र श्रेयोमार्गका ही विचार करना सत्कार-पुरस्कार परीषहजय है। पूजा प्रशंसा आदि होना सत्कार है और स्थान देना आमन्त्रण आदि देना पुरस्कार है। २६. 'मैं अंग पूर्व प्रकीर्णक आदिका ज्ञाता समस्त प्रन्थार्थका पंडित अनुत्तरवादी त्रिकालविषयार्थवेदी शब्द न्याय अध्यात्म आदिमें निपुण हूँ, मेरे सामने सूर्य के समक्ष जुगनूकी तरह अन्यवादी निस्तेज हैं। इस प्रकारके विज्ञानमदको नहीं होने देना प्रज्ञापरीषह जय है। २७. अध्ययन और अर्थग्रहणमें श्रम करनेवाले चिरप्रव्रजित विविधतपधारी सर्वतः अप्रमत्त अशुभ मन वचन कायकी क्रियाओंसे सर्वथा रहित मुझको 'यह अज्ञ है,कुछ नहीं जानता, पशुसम है' इत्यादि आक्षेप वचनोंको शान्तिसे सहने पर भी आज तक ज्ञानातिशय नहीं हुआ इस प्रकार अपने में अज्ञानसे हीनभावना नहीं होने देना और न दुःखी होना अज्ञानपरीषहजय है। २८. संयमप्रधान दुष्कर तप तपनेवाले वैराग्य भावनासे शुद्धहदययुक्त सकल तस्वार्थवेदी अर्हदायतन साधु और धर्मके प्रतिपूजक और चिरप्रवजित मुझ तपस्वीको आज तक कोई ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हुआ। 'महोपवास करनेवालोंको प्राविहार्य उत्पन्न हुए थे यह सब सूठ है, यह दीक्षा व्यर्थ है, व्रतपालन निरर्थक है, इस प्रकारकी चित्तमें अभद्धा उत्पन्न नहीं होने देना और अपने सम्यग्दर्शनको दृढ़ रखना अदर्शनपरीषहजय है। इस तरह असंकल्पोपस्थित परीषहोंको सहन करनेसे चित्त संकेशरहित होता है और रागादि परिणामों के अभावमें महान् संवर होता है। ६२९-३१. यद्यपि दर्शनके श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं पर यहाँ मति आदि पाँच झानोंके अव्यभिचारी अद्धान रूप दर्शनका ग्रहण है, आलोचन रूप दर्शन श्रुत और और मनःपर्यय ज्ञानोंमें नहीं होता अतः उसका प्रहण नहीं है। भागे दर्शनमोहके उदयसे ही अदर्शन परीषह बताई जायगी अतः दर्शनका भद्धान अर्थ केवल कल्पनामात्र नहीं है । यद्यपि अवधिदर्शन आदिके उत्पन्न न होने पर भी इसमें वे गुण नही हैंआदि रूपसे अवधिदर्शन आदि सम्बन्धी परीषह हो सकती हैं पर वस्तुतः ये दर्शन अपने अपने शानोंके सहचारी हैं अतः अज्ञानपरीषहमें ही इनका अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे सूर्य के प्रकाशके अभावमें प्रताप नहीं होता उसी तरह अवधिज्ञानके अभावमें अवधिदर्शन नहीं होता, अतः अज्ञानपरीषहमें ही
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy