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________________ ७८२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९।१०-१३ उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि परीषहोंका अन्तर्भाव है। इसी प्रकार श्रद्धान रूप दर्शनको ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञापरीषहमें अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता क्योंकि कभी कभी प्रज्ञाके होने पर भी तत्त्वार्थश्रद्धानका अभाव देखा जाता है, अत: व्यभिचारी है। सूक्ष्मसाम्परायच्छास्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ दसवें ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें चौदह परीषह होती हैं मोहनीय सम्बन्धी आठ परीषह नहीं होती। १-२. चौदह ही होती हैं कम बढ़ नहीं । यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायमें सूक्ष्म लोभसंज्वलनका उदय है पर वह अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कार्यकारी नहीं है, मात्र उसका सद्भाव ही है अतः छमस्थ और वीतरागकी तरह उसमें भी चौदह ही परीषह होती हैं। ३. प्रश्न-जिसके क्षुधाकी सम्भावना होती है उसीसे उसको जीतने के कारण क्षुधा परीषहजय कहा जा सकता है। जब ११वें और १२वें गुणस्थानमें मोहका मन्दोदय उपशम और क्षय है तब मोहोदय रूप बलाधायकके अभावमें वेदना न होनेसे परीषहोंकी सम्भावना ही नहीं है अतः उनका जय या अभाव कैसा ? उत्तर-जैसे सर्वार्थसिद्धिके देवोंके उत्कृष्ट साताके उदय होने पर भी सप्तमपृथिवीगमन-सामर्थ्य की हानि नहीं है उसी तरह वीतराग छमस्थके भी कर्मोदयसद्भावकृत परीषह व्यपदेश हो सकता है। ___ एकादश जिने ॥ ११ ॥ जिन भगवान्में ग्यारह परीषह 'कोई मानते हैं। यह वाक्य शेष यहाँ समझना चाहिये। १. प्रश्न-केवलीमें घातिया कोका नाश होनेसे निमित्तके हट जानेके कारण नाग्न्य अरति स्त्री निषद्या आक्रोश याचना अलाभ सत्कार पुरस्कार प्रज्ञा अज्ञान और अदर्शन परीषहें न हों, पर वेदनीय कर्मका उदय होनेसे तदाश्रित परीषहें तो होनी ही चाहिये ? उत्तर-घातिया कर्मोदय रूपी सहायकके अभावसे अन्य कोंकी सामर्थ्य नष्ट हो जाती है। जैसे मन्त्र औषधिके प्रयोगसे जिसकी मारणशक्ति उपक्षीण हो गई है ऐसे विषको खानेपर भी मरण नहीं होता उसीतरह ध्यानानिके द्वारा घातिकर्मेन्धनके जल जानेपर अनन्त चतुष्टयके स्वामी केवलीके अन्तरायका अभाव हो जानेसे प्रतिक्षण शुभकर्मपुद्गलोंका संचय होते रहनेसे प्रक्षीणसहाय वेदनीयकर्म विद्यमान रहकर भी अपना कार्य नहीं कर सकता, इसीलिए केवलीमें क्षुधा आदि नहीं होते । अथवा, 'केवलीमें ग्यारह परीषह कोई मानते हैं। ऐसा वाक्यशेष मानकर अर्थ नहीं करना चाहिये किन्तु 'ग्यारह परीषहें हैं। ऐसा अर्थ करना चाहिये । ये ग्यारह परीषह केवलीमें ध्यानकी तरह उपचारसे मानी जाती हैं। जैसे समस्तज्ञानावरणका नाश करनेके कारण परिपूर्णज्ञानशाली केवलीमें एकाप्रचिन्तानिरोध न होनेपर भी कर्मनाशरूपी ध्यानफलको देखकर ध्यानका उपचारसे सद्भाव माना जाता है उसीतरह क्षुधा आदि वेदनारूप वास्तविक परीषहोंके अभावसे भी वेदनीय कर्मोदयरूप द्रव्य परीषहका सद्भाव देखकर ग्यारह परीषहोंका उपचार कर लिया जाता है। बादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ ६१-३. बादरसाम्पराय-अर्थात् प्रमत्तसंयत आदि बादरसाम्परायतकके साधुओंके शानावरणादि समस्त निमित्तोंके विद्यमान रहनेसे सभी परीषह होते हैं। सामायिक छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धिके चारित्रमें सभी परीषहोंकी संभावना है। ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ ६१-२. ज्ञानावरणके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं। क्षायोपशमिकी प्रज्ञा
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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