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________________ ७८० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९९ नवनीतसम मृदुशय्या आदिका स्मरण भी न करके आगमविधिसे शयन करते हैं, उससे प्रच्युत नहीं होते। यह शय्यापरीषहजय है। ६१७. मोहाविष्ट मिथ्यादृष्टि आर्य म्लेच्छ खल पापाचार मत्त उदृप्त और शंकित आदि दुष्टोंके द्वारा कठोर कर्कश कान फाड़ देनेवाले हृदयभेदी क्रोधाग्निवर्धक धिक्कार और गाली आदि दुर्वचनोंको सुनकर भी स्थिर चित्त रहनेवाले, भस्म करनेकी शक्ति रहने पर भी क्षमाशील उन कटु शब्दोंके अर्थविचारसे पराङ्मुख 'मेरे पूर्व अशुभ कर्मका उदय ही ऐसा है जिससे मेरे प्रति इनका द्वेष है' इत्यादि पुण्यभावनाओंसे सुभावित साधुका अनिष्ट वचनोंका सहना आक्रोश परीषहजय है। १८. गाँव, बगीचा, जंगल, नगर आदिमें रात-दिन एकाकी निरावरण साधुको चोर, कुतवाल, म्लेक्ष, भील, कठोर, बहरा, पूर्वशत्रु और द्वेषाविष्ट आदिके द्वारा क्रोधपूर्वक ताड़न, आकर्षण, बन्धन, शस्त्राभिघात आदिसे मारनेपर भी वैरभाव नहीं होना, उलटे क्षमा-अमृतसे मारनेवालोंमें मित्रभाव करना वधपरीषहजय है। उस समय वे यही विचारते हैं कि यह शरीर अवश्य ही नष्ट होनेवाला है। यह कुशलता है कि हमारे व्रत शील भावना आदि नष्ट नहीं हुए केवल शरीर ही नष्ट हो रहा है । जलानेपर भी चन्दनकी तरह सुवास फैलाना ही हमारा धर्म है, इससे तो हमारे कोंकी निर्जरा ही हो रही है । आदि। १९. क्षुधा मार्गश्रम तप रोग आदिके द्वारा सूखे रूखकी तरह जिनके समस्त अवयव सूख गये हैं, जिनके हाड़ और नसें ऊपर नीचे हो रही हैं, आँखें धंस गई हैं, ओंठ सूख गये हैं, सारे शरीरका चमड़ा सुकड़ गया है, जाँघे पैर हाथ आदि अत्यन्त शिथिल हो गये हैं ऐसे परमस्वाभिमानी मौनी आगमविहित विधिसे भिक्षा लेनेवाले साधुके परमक्षीणता होनेपर भी और प्राण जानेका समय आनेपर भी कभी दीनतापूर्वक अविहित आहार वसति औषध आदिकी याचना नहीं करना याचनापरीषहजय है। वे भिक्षाके समय केवल अपनेको दिखाते भर हैं। कभी भी मुखपर विवर्णता हीनवचनप्रयोग या किसी प्रकारका याचनासंकेत नहीं करते । जिस प्रकार जौहरी मणि दिखाता है उसी तरह स्वशरीर दिखा देना इतना ही पर्याप्त है। वन्दना करनेवालेको आशीर्वाद देनेके समय ही उनके हाथ फैलते हैं, याचनाके लिए नहीं। इस तरह ऊर्जितसत्त्व और प्रज्ञासे सन्तुष्टमना साधुका याचनापरीषहजय है। वायुकी तरह अनेकदेशविहारी, अपनी शक्तिका प्रकाश नहीं करनेवाले. एकभोजी. 'दो' इस असभ्य दीन वचनके बिना स्वशरीरदर्शनमात्रसे भिक्षा स्वीकार करनेवाले, शरीरसे सर्वथा उदासीन, 'यह आज और यह कल' इत्यादि संकल्पोंसे रहित, पाणिपात्री सन्तोषी साधुको बहुत दिनोंतक अनेक घरों में घूमनेपर भी निरन्तराय भिक्षा न मिलनेपर, प्रामान्तर जानेकी आकांक्षा न होना तथा चित्तमें रंचमात्र संक्लेश न होना अलाभविजय है। वे यह नहीं सोचते और न कहते हैं कि 'यहाँ दाता नहीं हैं, वहाँ बड़े-बड़े दानी दाता थे' किन्तु सदा लाभसे अलाभको ही अपने स्वावलम्बी जीवनके लिए उत्कृष्ट तप समझते हैं। . २१. 'यह शरीर वात, पित्त, कफ और सन्निपातजन्य अनेक रोगों और वेदनाओंका आकर है, दुखोंका कारण और अशुचि है। यह जीर्णवल की तरह अवश्य ही छोड़ने योग्य है, इस तरह अपने शरीरमें परशरीरकी तरह उपेक्षाभाव धारण कर सब प्रकारकी चिकित्साओंसे चित्तको हटा शरीरयात्राके लिए मात्र विधिवत् आहारग्रहण करनेवाले साधुका जल्लोषधि आदि अनेक औषध ऋद्धियोंके होनेपर भी शरीरसे निःस्पृह रहकर 'पूर्वकृत पापका यह फल है, इसे भोगकर उऋण हो जाना ही अच्छा है' इत्यादि विचारोंके द्वारा रोगका प्रतीकार न कर उसे सहन करना रोगपरीषहजय है। ६२२. सूखे तृण पत्र भूमि कण्टक काष्ठ फलक और शिलातल आदि किसी भी प्रासुक
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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