SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७७९ ९९] - नवाँ अध्याय रोकने में असमर्थ अन्य तापस उसे ढंकनेके लिए कौपीन फलक चीवर आदि आवरणोंको प्रहण करते हैं। पर वह केवल अंगसंवरण कर सकता है कर्मसंवरण नहीं। ११-१२ क्षुधादिकी बाधा, संयमरक्षा, इन्द्रियदुर्जयत्व, व्रतपरिपालनभार, गौरव, सदा अप्रमत्त रहना, देशभाषान्तरका न समझना और चपल जन्तुओंसे व्याप्त भयानक विषम वनोंमें नियत एक विहारी रहने आदि कारणोंसे होनेवाली संयमकी अरतिको धैर्यविशेषसे नष्ट करनेवाले और संयमविषयक रतिभावनासे विषयसुखरतिको विषाहारके समान विपाक कटु माननेवाले परम संयमीके इस प्रकार अरतिपरीषहजय होता है। यद्यपि सभी परीषहें अरति उत्पन्न करतो हैं फिर भी क्षुधा आदिके न होनेपर भी मोहकर्मके उदयसे होनेवाली संयमकी अरतिका संग्रह करनेके लिए 'अरति'का पृथक् ग्रहण किया है। १३. एकान्त उद्यान और भवन आदिमें रागद्वष यौवनदर्प रूपमद विभ्रम उन्माद मद्यपान और आवेश आदि कारणोंसे स्त्रीबाधा होनेपर भी उनके नेत्रविकार भूविकार शृंगार आकार विहार हावभाव विलास हास लीलाकटाक्ष सुकुमार-स्निग्ध-मृदु-पीन-उन्नत-स्तनकलश नितान्त-क्षीण उदर पृथु जघन रूप गुण आभरण गन्ध वस्त्र और माला आदिके प्रति पूर्ण निग्रहके भाव होनेसे जो दर्शन स्पर्शन आदिकी इच्छासे पूर्णतः रहित हैं तथा स्निग्ध मृदु विशद सुकुमार शब्द और तन्त्री वीणा आदिसे मिश्रित मधुरगान आदिके सुनने में निरुत्सक हैं, तथा बैण अनर्थोंको संसाररूपी समुद्रके व्यसनपाताल भयंकर दुःख रौद्र भंवर आदि रूप विचार करने वाले हैं ऐसे परमसंयमीके स्त्रीपरीषहजय होता है। अन्य ब्रह्मा आदि देव तिलोत्तमा देवगणिका आदिके रूपको देखकर विकारको प्राप्त हो गये थे, वे स्त्रीपरीषहरूपी पंकसे ऊपर नहीं उठ सके । १४. दीर्घकाल तक जिनने गुरुकुलमें ब्रह्मचर्यवास किया है, बन्धमोक्षतत्त्वके मर्मज्ञ, कषायनिमहमें तत्पर, भावनाओंसे जिनका चिरा सुभावित है ऐसे साधु जब गुरुकी आज्ञापूर्वक आहारचर्या के लिए या विहारके लिए जाते हैं तब मार्ग में कठोर कंकड़-कंटक आदिसे पैरोंके कट जाने पर और छिल जाने पर भी खेदका अनुभव नहीं करते यह चर्यापरीषहजय है । अनेक देशके व्यवहारोंके ज्ञाता साधु गाँवमें एक रात और नगरमें पाँच रात तक ठहरते हैं। वे ठहर कर भी वायुकी तरह निःसंग रहते है, तथा भयंकर जंगल आदिमें सिंहकी तरह निर्भय और परसहायानपेक्ष वृत्तिवाले होते ६१५. श्मशान उद्यान शून्यगृह गिरिगुहा गह्वर आदि नये नये स्थानोंमें संयम विधिज्ञ धैर्यशाली और उत्साहसंपन्न साधु जिस आसनसे बैठते हैं उस आसनसे उपसर्ग रोगविकार आदि होने पर भी विचलित नहीं होते और न मन्त्रविद्या आदिसे उपसर्ग आदिका प्रतीकार ही करना चाहते हैं । क्षुद्रजन्तुयुक्त विषमदेशमें भी काष्ठ या पत्थरकी तरह निश्चल आसन जमाते हैं उससमय वे पूर्वानुभूत मृदुशय्या आदि बिछौनोंका स्मरण भी नहीं करते। वे तो प्राणिहिंसाका पूर्णरूपसे परिहार करनेमें तत्पर रहते हैं, ज्ञान ध्यान भावना आदिसे चित्तको सुभावित करते हैं । वीरासन उत्कुटिकासन आदि जिस आसनसे बैठते हैं उसको निर्दोष रूपसे बाँधते हैं। इस प्रकार आसनदोषका जीतना निषद्यापरीषहजय है। १६. स्वाध्याय ध्यान और मार्गश्रम आदिसे परिखेदित साधु जब खर विषम रेतीली कंकरीली पथरीली अत्यन्त गरम या ठंडी कैसी भी भूमिमें एक मुहूर्ततक एक करवटसे ठंठकी तरह सोते हैं तब वे संयमरक्षाके लिए हलनचलन आदिसे रहित होकर निश्चल रहते हैं, व्यन्तर आदिकी बाधा होने पर भागने या उसके प्रतीकारकी इच्छा नहीं रखते। वे मरणके भयसे भी निःशकरहकर मृतककी तरह या लकड़ीकी तरह निश्चल पड़े रहते हैं । वे यह प्रदेश सिंह व्याघ्र साँप आदि दुष्ट जन्तुओंसे व्याप्त है, अतः यहाँसे जल्दी भाग जाना चाहिये, कब रात्रि पूरी होती है' इत्यादि संकल्प-विकल्पोंसे रहित होकर सुख मिलने पर भी हर्षोन्मत्त न बनकर, पूर्वानुभूत
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy