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________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [e ७७८ शयके पास रहने पर भी जो जलकायिक जीवोंकी हिंसापरिहारके लिए उनके जलसे प्यास बुझानेकी इच्छा नहीं करनेवाले, पानी न मिलने से मुरझाई हुई लताकी तरह मुरझाये हुए शरीरकी परवाह नहीं करके तपकी मर्यादाओंका पालन करनेवाले, परमसंयमी साधु धैर्य कुम्भमें भरे हुए शील सुगन्धित प्रज्ञाजलसे तृष्णाग्निज्वालाको शान्त करते हैं और संयममें तत्पर रहते हैं । यह पिपासा परीषह जय है । ६४–५. भूख और प्यासकी सामर्थ्य जुदी जुदी है तथा दोनोंकी शान्तिके साधन भी पृथक पृथक हैं अतः अभ्यवहार सामान्य होनेपर भी दोनों जुदा जुदा हैं। ९६. निर्वख, पक्षियों की तरह अनियत आवासवाले और शरीर मात्र ही आधारवाले साधु शिशिर वसन्त और वर्षागममें वृक्षमूल मार्ग और गुफा आदि निवासोंमें गिरे हुए बरफ तुषार आदि से युक्त मर्मभेदिनी वायुसे तीव्र कँपकँपी आनेपर भी शीतके विनाशक अनि आदिक अभिलाषा नहीं करते किन्तु नरककी दुःसह तीव्र शीतवेदनाका स्मरण करके चित्तका समाधान करते हैं । वे विद्या मन्त्र औषध पत्ते बकला तृण और चर्म आदिकी आकांक्षा नहीं करके देहको पराई ही समझते हैं। वे तो धैर्यरूपी वस्त्रके द्वारा ही निर्विषाद संयम परिपालन करते हैं। पूर्व में अनुभूत धूप सुवासित गर्भागार सुरतसुख और अंगनालिंगन आदिका स्मरण भी नहीं करते । इस तरह वे शीतपरीषदका जय करते हैं। ९७. जेठकी दुपहरियामें सूर्यके प्रखर तापसे अंगारकी तरह शरीरके जलनेपर भी तथा तृष्णा अनशन पित्तरोग घाम और श्रम आदिकी असह्य गर्मीकी वेदनासे पसीना कंठशोष दाह आदिकी तड़प होनेपर भी जलभवन जलावगाहन लेपन सिंचन ठंडी जमीन कमलपत्र केलेके पत्र शीतल वायु चंदन चन्द्र कमल और मुक्ताहार आदि पूर्वानुभूत शीतल उपचारों की ओर तिरस्कार भाव रखनेवाले साधु उस महाभयंकर गरमी में यही विचार करते हैं कि - 'आत्मन, तूने बहुत बार नरको में परवश होकर अत्यन्त दुःसह उष्णवेदनाएँ सही हैं। यह तप तेरे कर्मों का क्षय कर रहा है, इसे तू स्वतन्त्र भावसे तप' इत्यादि पुनीत विचारोंसे प्रतीकारकी वाच्छा न करके चारित्रकी रक्षा करना उष्णपरोषहजय है । ८. शरीर के किसी भी प्रकारके आच्छादनसे रहित परकृत आवास गिरिगुहा आदि स्थानों में बसनेवाले साधुको रात दिन डांस मच्छर मक्खी पिस्सू कीड़ा जुआ खटमल चींटी और बिच्छू आदिके तीव्रपानसे काटे जानेपर भी उन्हें कर्मफल मानकर मणि मन्त्र औषध आदिसे उसके प्रतीकारकी इच्छा न रखते हुए जबतक शरीर है तबतक शत्रुसेनापर पिल पड़नेवाले और शत्रुओंके अस्त्र घातकी परवाह न करनेवाले मदान्ध हाथी की तरह कर्मसेनाके जयको सन्नद्ध बने रहना दंशमशक परीषहजय है । १९. दंशमशक शब्द डँसनेवाले जन्तुओंके उपलक्षणके लिए हैं, जैसे कि दही संरक्षण में 'काक' शब्द दहीखानेवाले प्राणियोंका उपलक्षक होता है। दंश या मशकमेंसे किसी एक का नाम लेनेसे उसी जन्तुका बोध होता अतः दूसरा शब्द उपलक्षणके लिए दे दिया है । १०. गुप्ति समितिकी अविरोधी परिग्रहनिवृत्ति और परिपूर्ण ब्रह्मचर्य मोक्षके साधन भूत चरित्रको पुष्ट करनेवाले हैं । यथाजातरूप नग्नता उक्त चारित्रका मूर्तिमान् रूप है, अविकारी और संस्कारशून्य-स्वाभाविक है । यद्यपि मिध्यादृष्टियों द्वारा इसके प्रति द्वेष प्रकट किया जाता है पर यह परममंगलरूप है। इस नग्नताको धारण करनेवाले साधु स्त्रीरूपको अशुचि बीभत्स और शव कंकालके समान देखते हैं। वे सदा वैराग्य भावनासे मनोविकारों को जीतते हैं । पुरुषविकार प्रकट न होनेसे नाग्न्यपरीषहजय कहलाता है । जातरूप धारण करना उत्तम है तथा श्रेयःप्राप्तिका कारण है। मनोविकारों को तथा तत्पूर्वक होनेवाले अंगविकारों को
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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