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________________ ९७] नवाँ अध्याय ७७१ इन तीनोंसे विलक्षण हैं। इनके चतुर्गति भ्रमण और असंसारकी प्राप्ति तो नहीं ही है पर केवलीकी तरह शरीरपरिस्पन्द भी नहीं है । जबतक शरीरपरिस्पन्द न होनेपर भी आत्मप्रदेशों का चलन होता रहता है तब तक संसार है। सिद्ध और अयोगकेवलियोंके आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द नहीं है। अन्य जीवोंके मनवचनकाययोग निमित्तक प्रदेश-परिस्पन्द होता रहता है। अभव्य तथा भव्यसामान्यकी दृष्टिसे संसार अनादि अनन्त है, भव्यविशेषकी अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नो संसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षणका काल अन्तर्मुहूत है। कर्म नोकर्म वस्तु और विषयाश्रयके भेदसे द्रव्य संसार चार प्रकारका है। स्वक्षेत्र और परक्षेत्रके भेदसे क्षेत्रसंसार दो प्रकारका है। लोकाकाशके समान असंख्य प्रदेशी माको कर्मोदयवश संहरण-विसर्पण स्वभावके कारण जो छोटे-बड़े शरीरमें रहना है वह स्वक्षेत्र संसार है । सम्मूर्छन गर्भ उपपाद आदि नौ प्रकारकी योनियों के अधीन परक्षेत्र संसार है। काल परमार्थ और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है। परमार्थकालके निमित्तसे होनेवाले परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप परिणमन जिनमें व्यवहारकालका विभाग भी होता है कालसंसार है। भवनिमित्त संसार बत्तीस प्रकारका है-सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे चार चार प्रकारके पृथिवी जल तेज और वायुकायिक, पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पति, सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अर्याप्तक ये चार साधारण वनस्पति, पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दा प्रकारके द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार पंचेन्द्रिय, इस प्रकार वत्तीस प्रकारका भवसंसार है। भावनिमित्तक संसारके दो भेद हैंस्वभाव और परभाव । मिथ्यादर्शन आदि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानावरणादि कर्माका रस परभाव संसार हैं । इस तरह इस अनेक सहस्र योनियोंसे संकुल संसारमें कर्मयन्त्रपर चढ़ा हुआ यह जीव परिभ्रमण करता हुआ कभी पिता होकर भाई पुत्र या पौत्र होता है, माता होकर बहिन स्त्री या लड़की होता है । अधिक क्या कहा जाय स्वयं अपना भी पुत्र हो जाता है। इस तरह संसारके स्वभावका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है । इस प्रकार भावना करते हुए संसारके दुःखोंसे भय और उद्वेग होकर वैराग्य हो जाता है और यह जीव संसारके नाशके लिए प्रयत्नशील होता है। ४. एकत्व और अनेकत्व द्रव्य क्षेत्र काल और भावके भेदसे चार चार प्रकारके हैं। द्रव्यैकत्व प्रत्येक जीवादि द्रव्यमें है। आकाशका एक परमाणुके द्वारा रोका गया प्रदेश क्षेत्रकस्व है । एक समय कालैकत्व है और मोक्षमार्ग निश्चयसे भावकत्व है। इसी तरह भेदविषयक अनेकत्व भी है । कोई एक या अनेक निश्चित नहीं है। सामान्य दृष्टिसे एक होकर भी विशेष दृष्टिसे अनेक हो जाता है। वाह्य अभ्यन्तर परिग्रहका त्यागकर सम्यग्ज्ञानसे एकत्व निश्चयको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिके यथाख्यात चारित्र रूपसे एक मोक्षमार्ग भावैकत्व है। इसकी प्राप्तिके लिए मुझे अकेले ही प्रयत्न करना है, मेरे न कोई स्व है और न कोई पर । मैं अकेलाही उत्पन्न होता हूँ और अकेले ही मरता हूँ, न मेरा कोई स्वजन है और न परजन जो व्याधि जरामरण आदिके दुःखों को हटा सके । बन्धु और मित्र इमसानसे आगे नहीं जाते । धर्म ही एक शाश्वतसदाका साथी है । इत्यादि विचार एकत्वानुप्रेक्षा है। इस भावनासे स्वजनोंमें राग और परमें द्वेप नहीं होता और अपरिग्रहत्वको स्वीकार कर यह मोक्षके लिए ही प्रयत्न करने लगता है। ५. नाम स्थापना द्रव्य और भावके भदसे अन्यत्व भो चार प्रकारका है। आत्मा जीव यह नाम भंद है। काष्ट प्रतिमा यह स्थापनाभंद है। जीवद्रव्य अजीवद्रव्य यह द्रव्यभे एक ही जीवमें बाल युवा मनुष्य देव आदि पर्यायभंद भावभेद है। बन्धकी दृष्टिसे शरीर और आत्मामें भेद न होने पर भी लक्षणकी अपेक्षा भेद है। कुशल पुरुषके चारित्र आदि प्रयोगोंसे शरीरसे अत्यन्त भिन्न रूपमें अपने स्वाभाविक ज्ञान आदि अनन्त अहेय गुणोंमें अवस्थानको
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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