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________________ ७७२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९७ मुक्ति अन्यत्व या शिवपद कहते हैं। इस परम अन्यत्वकी प्राप्ति के लिए 'शरीर ऐन्दियक है. मैं अतीन्द्रिय हूँ, शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञ हूँ, शरीर अनित्य है मैं नित्य हूँ, शरीर सादिसान्त है मैं अनादि अनन्त हूँ, मैंने लाखों शरीर धारण किये हैं, मैं उनसे भिन्न एक चेतन हूँ, जब शरीरसे ही मैं भिन्न हूँ तब बाह्यपरिग्रहोंकी तो बात ही क्या ?' इस प्रकार विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्व भावनासे शरीर आदिमें स्पृहा नहीं होती और यह मोक्षप्राप्तिके लिए प्रयत्न करने लगता है। ६६. लौकिक और लोकोत्तरके भेदसे शुचित्व दो प्रकारका है। कर्ममल-कलकोंको धोकर आत्माका आत्मामें ही अवस्थान लोकोत्तर शुचित्व है। इसके साधन सम्यग्दर्शन आदि, रत्नत्रयधारी साधुजन तथा उनसे अधिष्ठित निर्वाणभूमि आदि मोक्ष प्राप्तिके उपाय होनेसे शुचि हैं। काल अग्नि भस्म मृत्तिका गोबर पानी ज्ञान और निर्विचिकित्सा-ग्लानिरहितपना, इस प्रकार लौकिक-लोकप्रसिद्ध शुचित्व आठ प्रकारका है। कोई भी उपाय इस शरीरको पवित्र नहीं कर सकता क्योंकि यह अत्यन्त अशुचि है । आदि और उत्तर दोनों ही कारण इसके अत्यन्त अशुचि हैं। शरीरके आदि कारण वीर्य और रज हैं जो कि अत्यन्त अशुचि हैं, उत्तरकारण आहारका परिणमन आदि है । कवल-कवलकर खाया हुआ भोजन श्लेष्माशयमें पहुँचकर श्लेष्म जैसा पतला और अशुचि हो जाता है, फिर पित्ताशयको प्राप्त होकर अम्ल बनता है, फिर वाताशयको प्राप्त होते ही वायुसे विभक्त होकर खल और रस रूपसे विभाजित हो जाता है। खलभाग मूत्र मल पसीना आदि मलविकार रूपसे तथा रसभाग शोणित मांस मेद हड्डी मन्ना और शुक्ररूपसे परिणत होता है । ये सब दशाएँ अत्यन्त अपवित्र हैं। इन सबका स्थानभूत शरीर मैलाघरके समान है। इसकी अशुचिताके हटानेका कोई उपाय नहीं है। स्नान अनुलेपन धूप घिसना सुवास और माला आदिके द्वारा भी इसकी अशुचिता नहीं हटती। अंगारको तरह अपने संसर्ग में आये हुए पदार्थोंको अपनी ही तरह बना लेता है । जलादि पदार्थ उसके संसर्गसे स्वयं अपवित्र हो जाते हैं। बार बार भावित सम्यग्दर्शन आदि जीवकी आत्यन्तिक शुद्धिको प्रकट करते हैं। इस तरह वस्तु विचार करना अशुचि भावना है । इस तरह स्मरण और अनुचिन्तन करनेसे शरीरसे निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मसमुद्रसे पार उतरनेके लिए चित्त तैयार होता है। ७. यद्यपि आस्रव संवर और निर्जराके स्वरूपका निरूपण हो चुका है फिर भी भावनाओंमें उनका ग्रहण उनके गुण-दोषविचारके लिए किया गया है। आस्रवके दोषोंका विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है । आस्रव इसलोक और परलोकमें अपायसे युक्त हैं । इन्द्रिय आदिका उन्माद महानदीके प्रवाहकी तरह तीक्ष्ण है। बहुत यवयुक्त पानीदार और प्रमाथी आदि गुणों से सहित वनविहारी मदान्ध हाथी कृत्रिम हथिनियोंको देखकर स्पर्शनेन्द्रियके ज्वारसे मत्त हो गड्ड में गिरकर मनुष्यके अधीन हो जाते हैं और वध बन्ध वाहन अंकुशताडन महावतका आघात आदिके तीव्र दुःखोंको भोगते हैं। प्रतिक्षण अपने झुण्ड में स्वच्छन्द वनविहार तथा हथिनीके प्रवीचार सुखका स्मरण करके महान दुःखी होते हैं । जिह्वेन्द्रियके विषयमें लोल मरे हुए हाथीके मदजलमें डुबकी लगानेवाले पक्षियों की तरह अनेक आपत्तियोंके शिकार होते हैं। घ्राणेन्द्रियके वशंगत प्राणी जड़ीकी गन्धसे लुब्ध साँपकी तरह नाशको प्राप्त होते हैं। चक्षुइन्द्रियके वशंगत दीपकपर मरनेवाले पतंगोंकी तरह आपत्तिके सागरमें पड़कर दुःख उठाते हैं। श्रोत्रेन्द्रियके वशंगत प्राणी गीत ध्वनिके सुननेसे तृणोंके चरनेको भूलकर जाल में फँसनेवाले हरिणोंकी तरह अनर्थों के शिकार होते हैं। परलोकमें बहविध दुःखोंसे प्रज्वलित अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हैं। इस प्र आस्रव दोषोंका विचार करनेसे इसको उत्तम क्षमा आदि धर्मों में श्रेयस्त्वकी बुद्धि बनी रहती है। कछवकी तरह संकुचित अंगवाले संवरयुक्त जीवके ये आस्रव दोष नहीं होते। जैसे महासमुद्र में पड़ी हुई महानावमें यदि छेद हो जाय और उसे बन्द न किया जाय तो क्रमशः जलविप्लव
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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