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________________ ७७० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [९७ ब्रह्मचर्यको पालन करनेवालेके हिंसा आदि दोष नहीं लगते। नित्य गुरुकुलवासीको गुण सम्पदाएँ अपने आप मिल जाती हैं। स्त्रीविलास विभ्रम आदिका शिकार हुआ प्राणी पापोंका का भी शिकार बनता है। संसारमें अजितेन्द्रियता बड़ा अपमान कराती है। इस तरह उत्तम क्षमा आदि गुणोंका तथा क्रोधादि दोषोंका विचार करनेसे क्रोधादिकी निवृत्ति होनेपर तन्निमित्तक कर्मोका आस्रव रुककर महान् संवर होता है। २८. सभी उत्तम क्षमादिमें एक संवर रूप धर्मभाव पाया जाता है अतः उसकी प्रधानतासे धर्म शब्दमें एक वचन दिया गया है।धर्म शब्द नित्य पुल्लिंग है अतः 'ब्रह्मचर्याणि'के . साथ भी वह अपना लिंग नहीं छोड़ता। . अनुप्रक्षाओंका वर्णनअनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ अनित्य अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं। ११. आत्माने रागादि परिणामोंसे कर्म और नोकर्म रूपमें जिन पुदल द्रव्योंका ग्रहण किया है वे उपात्त पुद्गलद्रव्य तथा परमाणु आदि अनुप्राप्त पुद्गल सभी द्रव्य-दृष्टिसे नित्य होकर भी पर्याय दृष्टिले प्रतिक्षण पर्याय परिवर्तन होनेसे अनित्य हैं। शरीर इन्द्रियों के विषयभोग आदि जलबुद्बुदकी तरह विनश्वर हैं। गर्भादि अवस्थाओं में जो संयोग थे वे आज नहीं है। इनमें अज्ञानवश मोही जीव नित्यताका भ्रम करता है। आत्माके ज्ञानदर्शनोपयोग स्वभावको छोड़कर अन्यपदार्थ ध्रुव नहीं है। इस प्रकार संसारके पदार्थों में अनित्य भावना भानी चाहिये । इस प्रकार विचार करनेसे भोगकर फेंकी गई माला गन्ध आदि द्रव्योंकी तरह इन पदार्थाके वियोगमें भी मनस्ताप नहीं होगा। २. शरण दो प्रकार की है एक लौकिक दूसरी लोकोत्तर। यह प्रत्यक जीव अजीव और मिश्रके भेदसे तीन तीन प्रकारकी है। राजा या देवता आदि लौकिक जीव शरण हैं। कोट आदि अजीव शरण हैं तथा गाँव नगर आदि मिश्र शरण हैं । पंचपरमेष्ठी लोकोत्तर जीवशरण हैं उनके प्रतिबिम्ब आदि अजीवशरण हैं तथा धर्मोपकरणसहित साधुजन मिश्र शरण हैं । भूखे मांसखोर व्याघ्रके पंजोंसे एकान्तमें पकड़े गये हिरणके बच्चेकी तरह जन्म जरा रोग मृत्यु प्रियवियोग अप्रिय संयोग अलाभ और दारिद्रय आदि दुःखोंसे ग्रस्त इस जन्तुको कोई शरण नहीं है। यह परिपुष्ट शरीर मात्र भोजन करने में सहायक है आपत्ति पड़नेपर नहीं। प्रयत्नसे संचित धन अदि भी पर्यायान्तर तक नहीं जाते। सुख दुखके साथी मित्र भी मरणसे रक्षा नहीं कर सकते । आस पास जुटे बन्धुजन भी रोगसे नहीं बचा सकते । यदि कोई एकमात्र तरणोपाय है तो वह अच्छी तरह आचरण किया गया धर्म ही है। यही आपत्ति-सागरसे पार उतार सकता है। मृत्युके पाश से इन्द्र आदि भी नहीं बचा सकते । अतः भवव्यसनोंसे बचानेवाला एकमात्र धर्म ही शरण है। मित्र धन आदि कोई शरण नहीं हैं। इस प्रकारकी विचारधारा अशरण भावना है। इस प्रकार 'मैं अशरण हूँ' इस भावनासे भय या उद्वेगके आनेपर सांसारिक भावांमें ममत्व नहीं रहता और केवली भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत वचनोंकी ओर ही चित्त जाता है। ३. द्रव्यादि के निमित्तसे आत्माकी पर्यायान्तरप्राप्तिको संसार कहते हैं। आत्माकी चार अवस्थाएँ होती हैं-संसार असंसार नोसंसार और इन तीनोंसे विलक्षण । अनेक योनिवाली चारों गतियों में परिभ्रमण करनासंसार है । फिर जन्म न लेना-शिवप्रद प्राप्ति या परम सुख प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें परिभ्रमण न होनेसे तथा अभी मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवलीकी जीवन्मुक्त अवस्था ईषत्संसार या नो संसार है। अयोगकवली
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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