SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [ १११ भी छह प्रकारका है। दोनों हड्डियोंकी सन्धियाँ वञाकार हों। प्रत्येकमें वलयबन्धन और नाराच हों ऐसा सुसंहत बन्धन वर्षभनाराच संहनन है। वलयबन्धनसे रहित वही वननाराच संहनन है। वही वनाकार बन्धन और वलयबन्धनसे रहित पर नाराचयुक्त होने पर सनाराचसंहनन है। वही एक तरफ नाराचयक्त तथा दूसरी ओर नाराचरहित अवस्थामें अध नाराच है। जब दोनों हडियोंके छोरोंमें कील लगी हों तब वह कीलकसंहनन है। जिसमें भीतर हड़ियोंका परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहिरसे वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गई हों वह असंप्राप्तामृपाटिका संहनन है। १०. जिसके उदयसे विलक्षण स्पर्श आदिका प्रादुर्भाव हो वे स्पर्श आदि नामकर्म हैं । कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण ये आठ स्पर्श हैं । तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, और मधुर ये पाँच रस हैं । सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो गन्ध हैं। कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल ये पाँच वर्ण हैं । इन नाम कोंके उदयसे शरीरमें उस-उस जातिके स्पर्श आदि होते हैं। यद्यपि ये पुद्गलके स्वभाव हैं पर शरीरमें इनका अमुक रूपमें प्रादुर्भाव कर्मोदयकृत है। ६११. जिसके उदयसे विग्रहगतिमें पूर्व शरीरका आकार बना रहता है, वह नष्ट नहीं होता वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है । जिस समय मनुष्य या तिथंच अपनी आयुको पूर्ण कर पूर्व शरीरको छोड़ नरक गतिके अभिमुख होता है उस समय विग्रहगतिमें उदय तो नरकगत्यानुपूर्व्यका होता है परन्तु उस समय आत्माका आकार पूर्व शरीरके अनुसार मनुष्य या तियंचका बना रहता है। इसी तरह देवगत्यानुपूर्व्य मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य समझ लेना चाहिये। यह निर्माण नाम कर्मका कार्य नहीं है क्योंकि पूर्व शरीरके नष्ट होते ही निर्माण नाम कर्मका उदय समाप्त हो जाता है। उसके नष्ट होनेपर भी आठ कर्मोंका पिण्ड कार्मण शरीर और तैजसशरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले आत्मप्रदेशोंका आकार विग्रहगतिमें पूर्व शरीरके आकार बना रहता है। विग्रह गतिमें इसका काल अधिकसे अधिक तीन समय है। हाँ, ऋजुगतिमें पूर्व शरीरके आकारका विनाश होनेपर तुरन्त उत्तर शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण हो जाता है , अतः वहाँ निर्माण कर्मका ही व्यापार है। १२. जिसके उदयसे लोहपिण्डकी तरह गुरु होकर न तो पृथ्वीमें नीचे ही गिरता है और न रूईकी तरह लघु होकर ऊपर ही उड़ जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। धर्मअधर्म आदि अजीवोंमें अनादि पारिणामिक अगुरुलघुत्व गुणके कारण अगुरुलघुत्व है। अनादि कर्मबन्धनबद्ध जीवोंमें कर्मोदयसे अगुरुलघुत्व है और कर्मबन्धनरहित मुक्त जीवोंमें स्वाभाविक अगुरुलघुत्व है। ६१३-१४. जिसके उदयसे स्वयंकृत बन्धन और पर्वतसे गिरना आदि उपघात हो वह उपघात नाम कर्म है। कवच आदिके रहनेपर भी जिसके उदयसे परकृत शस्त्र आदिसे उपघात होता है वह परघात नामकर्म है। ६१५-१६. जिसके उदयसे सूर्य आदिमें ताप हो वह आतप नाम कर्म है तथा जिससे चन्द्र जुगुनू आदिमें उद्योत-प्रकाश हो वह उद्योत नाम कर्म है। १७. जिसके उदयसे श्वासोच्छास हों वह उच्छ्रास नाम कर्म है। १८. आकाशमें गतिका प्रयोजक विहायोगति नामकर्म है। हाथी, बैल आदिकी प्रशस्त गतिमें कारण प्रशस्त विहायोगति नाम कर्म होता है तथा ऊँट, गधा आदि की अप्रशस्त गतिमें कारण अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म है। मुक्तजीव और पुद्गलोंकी गति स्वाभाविकी है । विहायोगति नामकर्म आकाशगामी पक्षियोंमें ही नहीं है किन्तु सभी प्राणियों में है क्योंकि सबकी आकाशमें ही गति होती है। ६१९-२०. शरीर नामकर्मके उदयसे बना हुआ शरीर जिसके उदयसे एक ही आत्माके
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy