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________________ ८।११] आठवाँ अध्याय और मानस सुख दुःखसे समाकुल मानुष पर्यायमें जिसके उदयसे भवधारण हो वह मनुष्यायु है । शारीर और मानस अनेक सुखोंसे प्रायः युक्त देवोंमें जिसके उदय से भवधारण हो वह देवायु है । कभी-कभी देवोंमें भी प्रिय देवांगनाके वियोग और दूसरे देवोंकी विभूतिको देखकर तथा देवपर्यायकी समाप्तिके सूचक मालाका मुरझाना, आभूषण और देहकीकान्तिका मलिन पड़ जाने आदिको देखकर मानस दुःख उत्पन्न होता है। इसलिए 'प्राय:' पद दिया है। नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणवन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोधोतोच्छासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशस्कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वश्च ॥११॥ ६१. जिसके उदयसे आत्मा पर्यायान्तरके ग्रहण करनेके लिए गमन करता है वह गति है। 'गम्यते इति गतिः' ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर भी गति शब्द गो शब्दकी तरह रूढिसे एक गतिविशेष में प्रयुक्त होता है। अन्यथा जब आत्मा गमन नहीं करता उस समय तथा कर्मकी सत्ता अवस्था में गतिव्यपदेश नहीं हो सकेगा। नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतियाँ हैं। जिसके निमित्तसे आत्मामें नारक भाव हों वह नरक गति है । इसी तरह उन उन तिर्यच आदि भावोंको प्राप्त करानेवाली तिर्यग्गति आदि हैं। ६२. नरकादि गतियों में अव्यभिचारी सादृश्यसे एकीकृत स्वरूप जाति है। जातिव्यवहारमें निमित्त जाति नामकर्म है । जाति पाँच प्रकार की है-एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति । जिसके उदयसे आत्मा 'एकेन्द्रिय कहा जाय वह एकेन्द्रिय जाति है। इसी तरह अन्य भी समझना चाहिए। ६३. जिसके उदयसे आत्माकी शरीर रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मणके भेदसे शरीर पाँच प्रकारका है। ४. जिसके उदयसे सिर, पीठ, जाँघ, बाहु, उदर, नल, हाथ और पैर ये आठ अंग तथा ललाट नासिका आदि उपांगोंका विवेक हो वह अंगोपांग नाम कर्म है । वह तीन प्रकारका है-औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, २ वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग, और आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग । ५. जिसके निमित्तसे अङ्ग और उपाङ्गोंकी रचना हो वह निर्माण नाम कर्म है। वह दो प्रकार है-स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । यह जाति नाम कर्मके उदयकी अपेक्षा चक्षु आदिके स्थान और प्रमाणकी रचना करता है । जिससे रचना की जाय वह निर्माण है। ६६. शरीर नाम कर्मके उदयसे गृहीत पुद्गलोंका परस्पर प्रदेशसंश्लेष जिससे हो वह बन्धन नाम कर्म है। अभावमें शरीर लकड़ियोंके ढेर जैसा हो जाता। ६७. जिसके उदयसे औदारिकादि शरीरोंका निश्छिद्र परस्परसंश्लिष्ट संगठन होता है वह संघात नाम कर्म है। ८. जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंके आकार बने वह संस्थान नाम कर्म है। वह छह प्रकारका है। ऊपर नीचे जौर मध्यमें कुशल शिल्पीके द्वारा बनाये गये समचक्रकी तरह समान रूपसे शरीरके अवयवोंकी रचना होना समचतुरस्रसंत्थान है । बड़के पेड़की तरह नाभि के ऊपर भारी और नोचे लघु प्रदेशोंकी रचना न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है। इससे उलटा-ऊपर लघु और नीचे भारी, बाँबीकी तरह रचना स्वाति संस्थान है। पीठपर बहुत पुद्गलोंका पिंड हो जाना अर्थात् कुबड़ापन कुब्जक संस्थान है। सभी अंग और उपांगोंको छोटा बनानेमें कारण वामन संस्थान है । सभी अंग और उपांगोंको बेतरतीब हुंडकी तरह रचना हुंडक संस्थान है। ६९. जिसके उदयसे हड़ियोंके बन्धनविशेष होते हैं वह संहनन नाम कर्म है । यह
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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