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________________ ८।११] आठवाँ अध्याय उपभोग्य हो वह प्रत्येक शरीर नाम कर्म है तथा बहुत आत्माओंके उपभोग्य हो वह साधारण शरीर नाम कर्म है । साधारण जीवोंके साधारण आहार आदि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म-मरण श्वासोवास अनुग्रह और उपघात आदि होते हैं । जब एकके आहार शरीर इन्द्रिय और प्राणापान पर्याप्ति होती हैं उसी समय शेष अनन्त जीवोंकी पर्याप्तियाँ होती है। जब एक जन्मता या मरता है उसी समय शेष अनन्त जीवोंके जन्म-मरण हो जाते हैं। जिस समय एक श्वासोटास लेता या आहार करता या अग्नि विष आदिसे उपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवोंके भी श्वासोलास आहार और उपघात आदि होते २१-२२. जिसके उदयसे द्वीन्द्रिय आदि जंगम-प्राणियोंमें जन्म होता है वह त्रस नाम कर्म है तथा जिसके उदयसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायमें उत्पत्ति होती है वह स्थावर नाम कर्म है। $ २३-२४. रूपवान् या अरूपी कैसा भी हो पर जिसके उदयसे दूसरोंको प्यारा लगे वह सुभग नाम कर्म है और रूपवान् होकर भी जिसके उदयसे दूसरोंको प्यारा न लगे किन्तु अप्रीतिकर प्रतीत हो वह दुर्भग नाम कर्म है। २५-२६. जिसके उदयसे सुन्दर स्वर हो वह सुस्वर और जिसके उदयसे भद्दा स्वर हो वह दुःस्वर नामकर्म है। २७-२८. जिसके उदयसे देखने या सुननेपर रमणीय प्रतीत हो वह शुभ तथा रमणीय प्रतीत न हो वह अशुभ है। ___२९-३० जिसके उदयसे अन्य जीवोंके अनुग्रह या उपघातके अयोग्य सूक्ष्म शरीरकी प्राप्ति हो वह सूक्ष्म है तथा अन्यको बाधाकर स्थूल शरीर मिले वह बादर है। . ३१-३३. जिसके उदयसे आत्मा अन्तर्मुहूर्त में आहार आदि पाप्तियोंकी पूर्णता कर लेता है वह पर्याप्ति तथा जिससे पर्याप्तियोंकी पूर्णता न कर सके वह अपर्याप्ति नामकर्म है। आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति तो सर्वसंसारी जीवोंके होती है पर वह अतीन्द्रिय है-कान या स्पर्शसे अनुभवमें नहीं आती, पर उच्वास नामकर्मके उदयसे पंचेन्द्रिय जीवके जो शीत उष्ण आदिसे लम्बे उच्छवासनिश्वास होते हैं वे श्रोत्र और स्पर्शनसे ग्राह्य होते हैं। यही दोनोंमें अन्तर है। ६३४-३५. जिसके उदयसे दुष्कर उपवास आदि तप करनेपर भी अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कुश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है तथा जिससे एक उपवाससे या साधारण शीत उष्ण आदिसे ही शरीरमें अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है। ६३६-३७. जिसके उदयसे प्रभायुक्त शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय है। सूक्ष्म तैजसशरीरनिमित्सक सर्वसंसारी जीवोंके होनेवाली साधारण कान्ति आदेय नहीं है, अन्यथा सभी संसारी जीवोंके इसका उदय प्राप्त होगा किन्तु आदेयकर्मनिमित्तक लावण्य या सलौनापन जुदा ही है। ३८-३९. जिसके उदयसे पुण्य गुणख्यापन हो वह यशस्कीर्ति तथा पाप दोषख्यापन हो वह अयशस्कीर्ति है । यशको कीर्ति अर्थात् ख्याति प्रसिद्धि फैलाव हो जिससे वह यशस्कीर्ति है। यश और कीर्ति दोनों शब्द एकार्थक नहीं है। ४०-४२. जिसके उदयसे अचिन्त्य विशेषविभूतियुक्त आर्हन्त्यपद प्राप्त होता है वह तीर्थंकर नाम है । गणधरत्वपद प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होता है, चक्रवर्तित्व वासुदेव बलदेव आदि पद उच्चगोत्रनिमित्तक हैं अतः इनका पृथक् निर्देश नहीं किया है । तीर्थकी प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृतिका फल है। यह उच्चगोत्रसे नहीं हो सकता; क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदिके नहीं पाया जाता । अतः इसका पृथक निर्देश किया है। ४२
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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