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________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ८१० १४. अकषायवेदनीय हास्य आदिके भेदसे नव प्रकारका है। जिसके उदयसे हँसी आवे वह हास्य कर्म है । जिसके उदय से उत्सुकता हो वह रति है । रतिसे विपरीत अरति होती है अर्थात् अनौत्सुक्य । जिसका फल शोक हो वह शोक है। जिसके उदयसे उद्व ेग हो वह भय है। कुत्सा - ग्लानिको जुगुप्सा कहते हैं । यद्यपि जुगुप्सा कुत्साका ही एक भेद है फिर भी कुछ अन्तर है - अपने दोषों को ढँकना जुगुप्सा है तथा दूसरेके कुल शील आदिमें दोष लगाना आक्षेप करना और भर्त्सना करना आदि कुत्सा है। जिसके उदयसे कोमलता अस्फुटता क्लीबता कामावेश नेत्रविभ्रम आस्फालन और पुरुषकी इच्छा आदि स्त्री- भावोंको प्राप्त हो वह स्त्रीवेद है । जब स्त्रीवेदका उदय होता है तब पुरुषवेद और नपुंसकवेद सत्ता में रहते हैं। शरीर में जो स्तन योनि आदि चिह्न हैं वे नामकर्मके उदयसे होते हैं, अतः द्रव्यपुरुषको भी स्त्रीवेदका उदय होता है । कभी स्त्रीको भी पुंवेदका उदय होता है। शरीरका आकार तो नामकर्मकी रचना है । जिसके उदयसे पुरुष सम्बन्धी भावोंको प्राप्त तो वह पुरंवेद और जिसके उदयसे नपुंसकों के भावोंको प्राप्त हो वह नपुंसक वेद है । ७५२ ५. कषायवेदनीय अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिके भेदसे सोलह प्रकारका है। अपने और पर उपघात या अनुपकार आदि करनेके क्रूर परिणाम क्रोध हैं। वह पर्वतरेखा, पृथ्वी रेखा, धूलिरेखा और जलरेखाके समान चार प्रकारका है। जाति आदिके मदसे दूसरे के प्रति नमक वृत्ति न होना मान है । वह पत्थरका खम्भा, हड्डी, लकड़ी और लताके समान चार प्रकारका है। दूसरे को ठगनेके लिए जो कुटिलता और छल आदि हैं वह माया है । यह बाँस वृक्षकी गँठीली जड़, मेढ़ेका सींग, गायके मूत्रकी वक्ररेखा और लेखनीके समान चार प्रकारकी है। धन आदिकी तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ है। यह किरमिची रंग, काजल, कीचड़ और हलदी के रंगके समान चार प्रकारका है। इन क्रोध, मान, माया और लोभकी अनन्तानुबन्धी आदि चार अवस्थाएँ होती हैं। अनन्त संसारका कारण होनेसे मिध्यादर्शनको अनन्त कहते हैं, इस अनन्त मिध्यात्वको बाँधने वाली कषाय अनन्तानुबन्धी है। जिसके उदयसे देशविरति अर्थात् थोड़ा भी संयम संयमासंयम प्राप्त नहीं कर सकते वह देशविरतिका आवरण करनेवाली कषायः अप्रत्याख्यानावरण है। जिसके उदयसे संपूर्णविरति या सकलसंयम धारण न कर सकें वह समस्त प्रत्याख्यान -सर्व त्यागको रोकनेवाली कषाय प्रत्याख्यानावरण है । जो संयमके साथ ही जलती रहे अथवा जिसके रहनेपर भी संयम हो सकता हो वह संज्वलन कषाय है । इस तरह ४४४ सोलह कषायें होती हैं । आयुकी उत्तर प्रकृतियाँ नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥ १० ॥ $१-४. नरकादिपर्यायोंके सम्बन्धसे आयु भी नारक तैर्यग्योन आदि कही जाती है, अर्थात् नरकादिमें होनेवाली आयुएँ। जिसके होनेपर जीवित और जिसके अभाव में मृत कहा जाता है वह भवधारण में कारण आयु है । अन्न आदि तो आयुके अनुग्राहक हैं। जैसे घटकी उत्पत्ति में मृत्पिण्ड मूल कारण है और दण्ड आदि उसके उपग्राहक हैं उसी तरह भवधारणका अभ्यन्तर कारण आयु है और अन्न आदि उपग्राहक । फिर सर्वत्र अन्नादि अनुग्राहक भी नहीं होते; क्योंकि देवों और नारकियोंके अन्नका आहार नहीं होता, अतः भवधारण आयुके ही अधीन है । 1 ६५-८. जिसके उदयसे तीव्र शीत और तीव्र उष्ण वेदनावाले नरकोंमें भी दीर्घजीवन होता है वह नरकायु है । क्षुधा तृष्णा शीत उष्ण दंशमशक आदि अनेक दुःखोंके स्थानभूत तियंचों में जिसके उदयसे भवधारण हो वह तैर्यग्योन है । शारीरिक
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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