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________________ ८1८-९] आठवाँ अध्याय साथ अभेद रूपसे; फिर भी कोई विरोध नहीं है क्योंकि भेद और अभेद रूपसे सम्बन्ध करना विवक्षाधीन है। जहाँ जैसी विवक्षा होगी वहाँ वैसा सम्बन्ध हो जायगा। ६१२-१६. चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरणके उदयसे आत्माके चक्षुरादि इन्द्रियजन्य आलोचन नहीं हो पाता । इन इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानके पहिले जो सामान्यालोचन होता है उस पर इन दर्शनावरणोंका असर होता है। अवधिदर्शनावरणके उदयसे अवधिदर्शन और केवलदर्शनावरणके उदयसे केवलदर्शन नहीं हो पाता। निद्राके उदयसे तम-अवस्था और निद्रा-निद्राके उदयसे महातम-अवस्था होती है। प्रचलाके उदयसे बैठे-बैठे ही घूमने लगता है, नेत्र और शरीर चलने लगते हैं, देखते हुए वह भी नहीं देख पाता । प्रचला-प्रचलाके उदयसे अत्यन्त ऊँघता है, बाण आदिसे शरीरके छिद जानेपर भी कुछ नहीं देख पाता। वेदनीयकी उत्तर प्रकृतियाँ सदसवेद्ये ॥८॥ १२. जिसके उदयसे अनेक प्रकारकी देव आदि विशिष्ट गतियों में इष्ट सामग्रीके सनिधानकी अपेक्षा प्राणियोंके अनेक प्रकारके शारीरिक और मानस सुखोंका अनुभवन होता है वह सातावेदनीय है और जिसके उदयसे नरक आदि गतियों में अनेक प्रकारके कायिक मानस अतिदुःसह जन्म जरा मरण प्रियवियोग अप्रियसंयोग व्याधि वध और बन्ध आदिसे जन्य दुःखका अनुभव होता है वह असातावेदनीय है। मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियाँ दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यात्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिध्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीनपुंसकवेदाः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥९॥ ___$१. दर्शन आदिका तीन आदिसे क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिए। अर्थात् दर्शनमोहनीय तीन प्रकारका, चारित्र-मोहनीय दो प्रकारका, अकषाय वेदनीय नव प्रकारका और कषायवेदनीय सोलह प्रकारका है। २. दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व मिथ्यात्व और मिश्र । दर्शनमोहनीयकर्म बन्धकी अपेक्षा एक होकर भी सत्ताकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। जिसके उदयसे सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे पराङ मुख होकर तत्त्वश्रद्धानसे निरुत्सुक और हिताहित विभागमें असमर्थ मिथ्यादृष्टि हो जाता है, वह मिथ्यात्व है। शुभ-परिणामोंसे जब उसका अनुभाग रोक दिया जाता है और जब वह उदासीन रूपसे स्थित रहकर आत्मश्रद्धानको नहीं रोकता तब वही सम्यक्त्व प्रकृति रूप बन जाता है और उसके उदयमें भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। जब वही मिथ्यात्व आधा शुद्ध और आधे अशुद्ध रसवाला होता है तब धोनेसे क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदोंकी तरह मिश्र या तदुभय कहा जाता है । इसके उदयसे आधे शुद्ध कोदोंसे जिस प्रकारका मद होता है उसी तरहके मिश्रभाव होते हैं। ६३. चारित्रमोहनीय अकषाय और कषायके भेदसे दो प्रकारका है। जैसे 'अलोमिका' कहनेसे रोमका सर्वथा निषेध नहीं होता किन्तु काटने लायक बड़े रोमोंका अभाव हीर होता है उसी तरह अकषाय शब्दसे कषायका निषेध नहीं है किन्तु ईषत् कषाय विवक्षित है। ये स्वयं कषाय न होकर दूसरेके बलपर कषाय बन जाती हैं। जैसे कुत्ता स्वामीका इशारा पाकर काटनेको दौड़ता है और स्वामीके इशारेसे ही वापिस आ जाता है उसी तरह क्रोधादि कषायोंके बलपर ही हास्य आदि नोकषायोंकी प्रवृत्ति होती है, क्रोधादिके अभावमें ये निर्बल रहती हैं, इसीलिए इन्हें ईषत्कषाय अकषाय या नोकषाय कहते हैं।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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