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________________ ७५० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [८७ आकाशका मेघपटल आदिसे आवरण देखा जाता है उसी तरह विद्यमान भी मति आदिका आवरण मानने में क्या विरोध है ? जैसे प्रत्याख्यान कोई प्रत्यक्ष पदार्थ नहीं है जिसके आवरणसे प्रत्याख्यानावरण हो किन्तु प्रत्याख्यानावरणके उदयसे आत्मामें प्रत्याख्यान पर्याय उत्पन्न नहीं होती इसीलिए वह प्रत्याख्यानावरण कहा जाता है उसी तरह मति आदिका कहीं प्रत्यक्षीभत ढेर नहीं लगा है जिसको ढंक देनेसे मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किन्तु मत्यावरण आदिक उदयसे आत्मामें मतिज्ञान आदि उत्पन्न नहीं होते इसीलिए उन्हें आवरण संज्ञा दी गई है। - ७-९. द्रव्यदृष्टिसे अभव्योंमें भी मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी शक्ति है, इसीलिए अभव्योंके भी मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण माने जाते हैं। मात्र इनकी शक्ति होनेसे उनमें भव्यत्वका प्रसंग भी नहीं दिया जा सकता; क्योंकि भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान दर्शन और चारित्रकी शक्तिके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा नहीं है किन्तु उस शक्तिकी प्रकट होनेकी योग्यता और अयोग्यताकी अपेक्षा है । जैसे जिसमें सुवर्णपर्यायके प्रकट होने की योग्यता है वह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण, उसी तरह सम्यग्दर्शनादि पर्यायोंकी अभिव्यक्तिकी योग्यतावाला भव्य तथा अन्य अभव्य हैं। अतः द्रव्य दृष्टिसे मनःपयेय और केवलज्ञानकी शक्ति विद्यमान रहते हुए भी जिनके उदयसे वे प्रकट नहीं हो पाते वे मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण अभव्यके भी हैं। १०. ज्ञानावरणके उदयसे आत्माके ज्ञान सामर्थ्य लुप्त हो जाती है, वह स्मृतिशून्य और धर्मश्रवणसे निरुत्सुक हो जाता है और अज्ञानजन्य अवमानसे अनेक दुःख पाता है । दर्शनावरणके भेदचक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ १. चक्षु अचक्षु अवधि और केवलका 'दर्शनावरण से सम्बन्ध करना है अतः उनमें पृथक विभक्ति दी गई है। $२-६. मद खेद और क्लमके दूर करनेके लिए सोना निद्रा है। नींदके ऊपर भी नींद आना निद्रानिद्रा है । जिस नींदसे आत्मामें विशेष प्रचलन उत्पन्न हो वह प्रचला है । शोक, श्रम, मद आदिके कारण इन्द्रिय व्यापारसे उपरत होकर बैठे ही बैठे शरीर और नेत्र आदिमें विकार उत्पन्न करनेवाली प्रचला होती है। प्रचलापर बार-बार प्रचलाका होना प्रचलाप्रचला है । जिसके उदयसे स्वप्न में विशेष शक्तिका आविर्भाव हो जाता है जिससे वह अनेक रौद्र कर्म तथा असम्भव कार्य कर डालता है और आकर सो जाता है, उसे पीछे स्मरण भी नहीं रहता वह स्त्यान गृद्धि है। ७-८. वीप्सार्थक द्वित्व नाना अधिकरणमें होता है। निद्रानिद्रा आदि निर्देशमें भी काल आदिके भेदसे एक भी आत्मामें नाना अधिकरणता वन जाती है। जैसे एक ही व्यक्तिमें कालभेदसे गुणभेद होनेपर 'गत वर्ष यह पटु था और इस वर्ष पटुतर है' यह प्रयोग हो जाता है तथा देशभेदसे मथुरामें देखे गये व्यक्तिको पटनामें देखनेपर 'तुम तो बदल गये' यह प्रयोग होता है उसी तरह यहाँ भी कालभेदसे भेद होकर वीप्सार्थक द्वित्व बन जायगा। अथवा, अभीक्ष्ण सततप्रवृत्ति-बार-बार प्रवृत्ति-अर्थमें द्वित्व होकर निद्रा-निद्रा प्रयोग बन जाता है जैसे कि घरमें घुस-घुसकर बैठा है अर्थात् बार-बार घरमें घुस जाता है यहाँ। ६९. निद्रादि कर्म और सातावेदनीयके उदयसे निद्रा आदि आती है । नींदसे शोक क्लम श्रम आदि हट जाते हैं अतः साताका उदय तो स्पष्ट ही है, असाताका मन्दोदय भी रहता है । १०-११. दर्शनावरणकी अनुवृत्ति करके निद्रा आदिका उससे अभेद सम्बन्ध कर लेना चाहिये अर्थात् निद्रा आदि दर्शनावरण हैं । यद्यपि चक्षु-अचक्षु आदिका भिन्न-भिन्न निर्देश ष्ठा-विभक्ति होनेसे भेदरूपसे ही दर्शनावरणका सम्बन्ध करना है और निद्रादिके
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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