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________________ ८५-६] आठवाँ अध्याय ७४९ सात प्रकारका है। ज्ञानावरण आदिके भेदसे आठ प्रकारका है। इस तरह संख्यात विकल्प शब्दकी दृष्टिसे समझना चाहिये। अध्यवसाय-स्थानोंकी दृष्टिसे असंख्येय और अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्धोंकी दृष्टिसे या ज्ञानावरणादिके अनुभवके अविभागप्रतिच्छेदोंकी दृष्टिसे अनन्त प्रकारका भी है। च शब्दसे इन सबका समुच्चय हो जाता है। ६१६-२३. ज्ञानसे आत्माका अधिगम होता है अतः स्वाधिगमका निमित्त होनेसे वह प्रधान है, अतः ज्ञानावरणका सर्वप्रथम ग्रहण किया है। साकारोपयोगरूप ज्ञानसे अनाकारोपयोगरूप दर्शन अप्रकृष्ट है परन्तु वेदनीय आदिसे प्रकृष्ट है क्योंकि उपलब्धिरूप है, अतः दर्शनावरणका उसके बाद ग्रहण किया है। इसके बाद वेदनीयका ग्रहण किया है क्योंकि वेदना ज्ञान-दर्शनकी अव्यभिचारिणी है,घटादिरूप विपक्षमें नहीं पाई जाती। ज्ञान-दर्शन और सुख-दुःख वेदनका विरोधी होनेसे उसके बाद मोहनीयका ग्रहण किया है । यद्यपि मोही जीवोंके भी ज्ञानदर्शन सुख आदि देखे जाते हैं फिर भी प्रायः मोहाभिभूत प्राणियोंको हिताहितका विवेक आदि नहीं रहते अतः मोहका ज्ञानादिसे विरोध कह दिया है। प्राणियोंको आयुनिमित्तक सुख-दुःख होते हैं अतः आयुका कथन इसके अनन्तर किया है। तात्पर्य यह कि प्राणधारियोंको ही कर्मनिमित्तक सुखादि होते हैं और प्राणधारण आयुका कार्य है। आयुके उदयके अनुसार ही प्रायः गति आदि नामकर्मका उदय होता है अतः आयुके बाद नामका ग्रहण किया है। शरीर आदिकी प्राप्तिके बाद ही गोत्रोदयसे शुभ-अशुभ आदि व्यवहार होते हैं अतः नामके बाद गोत्रका कथन किया गया है। अन्य कोई कर्म बचा नहीं है अतः अन्तमें अन्तरायका कथन किया गया है। उत्तर प्रकृतिबन्ध पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपश्चभेदो यथाक्रमम् ॥५॥ ६१-४. पञ्च आदि संख्या-शब्दोंका द्वन्द्व करके पीछे बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए । पहिले सूत्र में 'आय' पद दिया है, अतः 'द्वितीय' शब्दके बिना भी इस सूत्र में द्वितीय उत्तर प्रकृतिबन्धका बोध अर्थात् ही हो जाता है। भेदशब्द प्रत्येकमें लगा देना चाहिए-पश्चभेद नवभेद आदि । यथाक्रम अर्थात् सूत्र में निर्दिष्ट ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि क्रमसे ज्ञानावरणके पाँच भेद, दर्शनावरणके नव भेद आदि हैं। मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥६॥ मत्यावरण श्रुतावरण अवध्यावरण मनःपर्ययावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण हैं। ६१-३. मतिज्ञान आदिके लक्षण प्रथम अध्यायमें कहे जा चुके हैं। यदि 'मत्यादीनाम्' ऐसा लघु पाठ रखते तो 'मति आदिका एक आवरण है' इस अनिष्टार्थका प्रसंग होता अतः प्रत्येकसे मत्यावरण श्रुतावरण आदि सम्बन्ध करनेके लिए सबका पृथक ग्रहण किया है । 'ज्ञानावरणकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं। यहाँ 'पाँच' संख्याका निर्देश करनेसे मति आदि पाँच ज्ञानोंका क्रमशः सम्बन्ध हो जायगा' यह समाधान ठीक नहीं है। क्योंकि इसमें मति आदि प्रत्येकके पाँच आवरणोंका प्रसंग होगा। अतः इष्टार्थकी प्रतीतिके लिए प्रत्येक मति श्रुत आदिका ग्रहण किया गया है। ४-६. प्रश्न-विद्यमान मति आदिका आवरण होगा.या अविद्यमान ? यदि विद्यमानका; तो जब वह स्वरूपलाम करके विद्यमान ही है तब आवरण कैसा ? अविद्यमानका भी खरविषाणकी तरह आवरण नहीं हो सकता ? उत्तर-द्रव्यार्थदृष्टिसे सत् और पर्यायदृष्टिसे असत मति आदिका आवरण होता है। यदि सर्वथा सत् माना जाय तो फिर इन्हें क्षयोपशमजन्य नहीं हसकेंगे। और यदि सर्वथा 'असत् हैं; तब भी ये क्षयोपशमजन्य नहीं हो सकते। जैसे सत्
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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