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________________ ७४८ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [ ४ होता है। 'वेद्यते' जो अनुभव किया जाय वह वेदनीय है । जो मोहन करे या जिसके द्वारा मोह हो वह मोहनीय है। बहुलापेक्षया कर्नामें 'अनीय' प्रत्यय करनेसे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय शब्द भी सिद्ध हो जाते हैं । जिससे नरकादि पर्यायोंको प्राप्त हो वह आयु है । जो आत्माका नरकादि रूपसे नामकरण करे या जिसके द्वारा नामकरण हो वह नाम है । उच्च और नीच रूपसे शब्दव्यवहार जिससे हो वह गोत्र है। दाता और पात्र आदिके बीच में विघ्न आवे जिसके द्वारा वह अन्तराय है। अथवा, जिसके रहनेपर दाता आदि दानादि क्रियाएँन कर सकें, दानादिकी इच्छासे पराङ्मुख हो जाय वह अन्तराय है। ३. जिस प्रकार खाये हुए भोजनका अनेक विकारमें समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल रस आदि रूपसे परिणमन हो जाता है उसी तरह बिना किसी प्रयोगके कर्म आवरण, अनु पादन, नानाजाति नाम गोत्र और अन्तराय आदि शक्तियोंसे युक्त होकर आत्मासे बँध जाते हैं। ६४-५. प्रश्न-मोहकेहोनेपर भी हिताहितका विवेक नहीं होता अतः मोहको ज्ञानावरणसे भिन्न नहीं कहना चाहिये ? उत्तर-पदार्थका यथार्थ बोध करके भी 'यह ऐसा ही है। इस प्रकार सद्भूत अर्थका अश्रद्धान मोह है, पर ज्ञानावरणसे ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अतः दोनोंमें अन्तर है । जैसे अंकुररूप कार्यके भेदसे कारणभूत बीजोंमें भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और मोह आदि कार्यभेदसे उनके कारण ज्ञानावरण और मोहमें भेद होना ही चाहिये। ६-७. ज्ञान और दर्शन रूप कार्यभेद होनेसे ज्ञानावरण और दर्शनावरणमें भेद है। जैसे मेघका जल पात्रविशेषमें पड़कर विभिन्न रसों में परिणमन कर जाता है उसी तरह ज्ञानशक्तिका उपरोध करनेसे ज्ञानावरण सामान्यतः एक होकर भी अवान्तर शक्तिभेदसे मत्यावरण श्रुतावरण आदि रूपसे परिणमन करता है । इसी तरह अन्य कर्मोंका भी मूल और उत्तर प्रकृतिरूपसे परिणमन हो जाता है। ८-१४. प्रश्न-पुद्गलद्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दुःख आदि अनेक कार्योंका निमित्त नहीं हो सकता ? उत्तर-ऐसा ही स्वभाव है। जैसे एक ही अग्निमें दाह पाक प्रताप और प्रकाशकी सामर्थ्य है उसी तरह एक ही पुद्गलमें आवरण और सुख दुःखादिमें निमित्त होनेकी शक्ति है, इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप है। द्रव्यदृष्टिसे पुद्गल एक होकर भी अनेक परमाणुके स्निग्धरूक्षबन्धसे होनेवाली विभिन्न स्कन्ध पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेक है, इसमें कोई विरोध नहीं है। जिस प्रकार वैशेषिकके यहाँ पृथिवी जल अग्नि और वायु परमाणुओंसे निप्पन्न भिन्नजातीय इन्द्रियोंका एक ही दूध या घी उपकारक होता है उसी तरह यहाँ भी समझना चाहिये। जैसे इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न हैं वैसे उनमें होनेवाली वृद्धियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पृथिवीजातीय दृधसे तेजोजातीय चक्षुका उपकार होता है उसी तरह अचेतन कर्मसे भी चेतन आत्माका अनुग्रह आदि हो सकता है । अतः भिन्नजातीय द्रव्योंमें परस्पर उपकार माननेमें कोई विरोध नहीं है। १५. बन्धके एकसे लेकर संख्याततक भेद होते हैं। जैसे सैनिक हाथी घोड़ा आदि भेदोंकी विवक्षा न होनेसे सामान्यतया सेना एक कही जाती है अथवा अशोक आम तिलक वकुल आदि वृक्षोंकी भेद-विवक्षा न होनेसे सामान्यतया वन एक कहा जाता है उसी तरह भेदोंकी विवक्षा न होनेसे सामान्यरूपसे कर्मबन्ध एक ही प्रकारका है । जैसे आफिसर और साधारण सैनिकके भेदसे सेना दो भागों में बँट जाती है उसी तरह पुण्य और पापके भेदसे कर्मबन्ध भी दो प्रकारका है। अनादि सान्त, अनादि अनन्त और सादि सान्तके भेदसे अथवा भुजकार अल्पतर और अवस्थितके भेदसे बन्ध तीन प्रकारका है । प्रकृति स्थिति अनुभव और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भवके भेदसे पाँच प्रकारका है। छह जीव निकायके भेदसे छह प्रकारका है। राग द्वेष मोह क्रोध मान माया और लोभके भेदसे
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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