SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२६ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ७२-५ संवर करता है। अतः संवरकी भूमिकारूप इन व्रतोंका पुण्यास्रवका हेतु होनेसे यहाँ ही निर्देश करना उचित है । ६ १५-२० यद्यपि रात्रिभोजनविरति छठवें अणुव्रत के रूपमें निर्दिष्ट मिलता है, फिर भी अहिंसा व्रती 'आलोकितपानभोजन' नामक भावनामें अन्तर्भूत होनेसे उसका पृथक निर्देश नहीं किया है । प्रश्न – यदि आलोकितपानभोजनकी विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्र आदिके प्रकाशमें रात्रिभोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है ? उत्तर- इसमें अनेक आरम्भ दोष हैं । दीपकके जलानेमें और अग्नि आदिके करने करानेमें अनेक दोष होते हैं। दूसरेके द्वारा जलाये हुए प्रदीपके प्रकाशमें स्वयंका आरम्भ न भी हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते । 'ज्ञान सूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार हाथ आगे देखकर यतिको योग्य देशकालमें शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्रका उपदेश है । यह विधि रात्रिमें नहीं बनती । दिनको भिक्षा लाकर रात्रिमें भोजन करना भी उचित नहीं है; क्योंकि इसमें प्रदीप आदिके समारम्भके दोष बने ही रहते हैं। 'लाकर के भोजन करना' यह संयमका साधन भी नहीं है । निष्परिग्रही पाणिपुटभोजी साधुको भिक्षाका लाना भी संभव नहीं है । पात्र रखनेपर अनेक दोष देखे जाते हैं - अतिदीनवृत्ति आ जाती है और शीघ्र पूर्ण निवृत्तिके परिणाम नहीं हो सकते क्यों सर्व-सावयनिवृत्तिकालमें ही पात्रग्रहण करनेसे पात्रनिवृत्तिके परिणाम कैसे हो सकेंगे १ पात्रसे लाकर परीक्षा करके भोजन करनेमें भी योनिप्राभृतज्ञ साधुको संयोग विभाग आदिसे होनेवाले गुणदोषोंका विचार करना पड़ता है, लानेमें दोष है, छोड़ने में भी अनेक दोष होते है । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाशमें स्फुट रूपसे पदार्थ दिख जाते हैं, तथा भूमि दाता गमन अन्नपान : आदि गिरे या रखे हुए सब साफ साफ दिखाई देते हैं उस प्रकार चन्द्र आदिके प्रकाशमें नहीं दिखते । अतः दिनमें भोजन करना ही निर्दोष है । देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ ९१-२. देश अर्थात् एक भाग, सर्व-संपूर्णरूप | हिंसादिसे एकदेश विरक्त होना अणुव्रत है और सम्पूर्णरूप से विरक्ति महाव्रत हैं । जो व्यक्ति 'हिंसा नहीं करूँगा, झूठ नहीं बोलूँगा, चोरी नहीं करूँगा, परस्त्रीगमन नहीं करूँगा, परिग्रह नहीं रखूँगा' इन अभिप्रायोंकी रक्षा करने में असमर्थ है उसे इन व्रतोंकी दृढ़ताके लिए ये भावनाएँ पालनी चाहिए तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥ ३ ॥ इतकी स्थिरता के लिए पाँच-पाँच भावनाएँ होतीं हैं । ९१. वीर्यान्तरायक्षयोपशम चारित्रमोहोपशम-क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मोदयकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके द्वारा जो भाईं जातीं हैं जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना हैं । ९२ - ३. प्रश्न - ' पच पच' की जगह वीप्सा अर्थ में शस् प्रत्यय करके ' पशः' यह लघुनिर्देश करना चाहिए । 'भावयेत्' इस क्रियाका अध्याहार करनेसे यहाँ कारकका प्रकरण भी है ही । उत्तर-शस् प्रत्यय विकल्पसे होता है । फिर, क्रियाका अध्याहार करनेमें प्रतिपत्तिगौरव होता है, अतः स्पष्ट अर्थबोध करानेके लिए 'पश्च पश्च' यही विशद निर्देश उपयुक्त है। अहिंसात्रतकी भावनाएँ - वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ वचनगुप्ति मनोगुप्ति ईर्यासमिति आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसात्रतकी पाँच भावनाएँ हैं। क्रोधलोभभीरुत्वहास्य प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च ॥ ५ ॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy