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________________ सातवाँ अध्याय आस्रवके विचार में कहा गया पुण्यास्रव मोक्षमें परम्पराकारण होनेसे इस समय व्याख्येय है । अतः पुण्यास्रवके कारणभूत व्रतोंके लक्षण संख्या आदिका वर्णन करते हैं । अथवा, 'भूतव्रत्यनुकम्पा' सूत्रमें व्रती शब्द आया है, अतः उन व्रतोंका वर्णन करते हैंहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ॥ १ ॥ हिंसा असत्य चोरी कुशील और परिग्रहसे विरक्त होना व्रत है । ९१-३ हिंसादिके लक्षण आगे कहेंगे । चारित्रमोहके उपशम क्षय या क्षयोपशमसे औपशमिक आदि चारित्रोंकी प्रकटतामें जो विरक्ति होती है उसे विरति कहते हैं । बुद्धिपूर्व परिणामोंसे 'यह ऐसा ही करना है' इस प्रकारके नियमको व्रत कहते हैं । व्रतमें किसी अन्य कार्यसे निवृत्ति ही मुख्य होती है । ९४-५. 'हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः' यह अपादानार्थक पञ्चमी विभक्ति है । यहाँ बुद्धिके अपायमें ध्रुवत्वविवक्षा करके जैसे 'ग्रामाद् आगच्छति' में ग्रामको ध्रुव मानकर पश्चमी विभक्ति बनती है वैसे ही पचमी बन जाती है । जैसे 'धर्माद् विरमति' यहाँ कोई हतबुद्धि 'धर्म' बड़ा दुष्कर है, इसका फल श्रद्धामात्रगम्य है' यह विचार कर अपनी धर्मबुद्धिसे विरक्त होता है उसी तरह कोई विवेकी पुरुष 'हिंसादि परिणाम पापके कारण हैं, पापीको इसी लोक में राजदंड आदि मिलते हैं, परलोकमें भी अनेकविध दुःख उठाने पड़ते हैं' यह विचारकर हिंसाबुद्धिसे विरक्त होता है । अतः बुद्धिकी दृष्टिसे ध्रुवत्व विवक्षा में पश्चमी विभक्ति बन जाती है । अतः 'हिंसादि परिणाम क्षणिक है इस कारण उससे अपादान नहीं बनता । यदि हिंसापरिणत नित्य आत्माको हिंसा मानकर उससे विरक्ति करते हैं तो नित्य आत्मासे विरति हो नहीं सकती' यह आशंका निर्मूल हो जाती है । ६६. अहिंसा सभी व्रतोंमें प्रधान है, अतः उसका सर्वप्रथम कथन किया है । जैसे धान खेत में चारों ओर बारी लगा दी जाती है और उसी तरह अन्य सभी व्रत चारों ओर से अहिंसा रूपी धानकी रक्षा करने वाले हैं ९७- ९. विरति शब्दका सम्बन्ध 'हिंसाविरति अनृतविरति' आदि रूपसे प्रत्येकसे कर लेना चाहिए । यद्यपि गुड़ चावल आदि पकने योग्य पदार्थोंके भेदसे जैसे पाकमें भेद होता है। उसी तरह त्याज्य हिंसा अनृत आदिके भेदसे 'विरति' भी अनेक प्रकारकी हो सकती है किन्तु विरतिसामान्यकी दृष्टिसे यहाँ एकवचनका प्रयोग किया है। विषयभेदसे भेद यहाँ विवक्षित नहीं है । इसीलिए सर्व सावद्यनिवृत्तिरूप सामान्य सामायिकत्रतकी अपेक्षा एक व्रत है और भेदाधीन छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा पाँच व्रत होते हैं । ६ १०- १४. प्रश्न-इन अहिंसा आदि व्रतोंको आस्रवके प्रकरणमें न कहकर संवरके प्रकरणमें कहना चाहिए; क्योंकि संवर के कारणभूत भाव काय विनय ईर्यापथ भैक्ष्य शयन आसन प्रतिष्ठापन और वाक्य इन आठ शुद्धिरूप संयमधर्म में तथा सत्यादिमें इनका अन्तर्भाव हो जाता है । यदि प्रपचके लिए इनका निरूपण करना है तो वहीं करना चाहिए, यहाँ व्यर्थ ही प्रकरण बढ़ानेसे क्या लाभ ? उत्तर - व्रत संवररूप नहीं है; क्योंकि इनमें परिस्पन्द-प्रवृत्ति है । असत्य चोरी आदिसे विरक्त होकर सत्य अचौर्य आदि प्रवृत्ति देखी जाती है। हाँ, गुप्ति आदि संवर के लिए ये अहिंसादित्रत सहायक होते हैं । व्रतोंका संस्कार रखनेवाला साधु सुखपूर्वकं
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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