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________________ सातवाँ अध्याय क्रोधत्याग लोभत्याग भयत्याग हास्यत्याग और अनुवीचिभाषण-विचारपूर्वक बोलना ये पाँच सत्यव्रतकी भावनाएँ हैं। पुण्यासवका प्रकरण होनेसे अप्रशस्त क्रिया करनेवाले पापीके भाषणको अनुवीचिभाषण नहीं कह सकते। शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणमैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥६॥ - शून्यागार-पर्वतकी गुफा वृक्षकी खोह आदिमें निवास करना, परके द्वारा छोड़े गये मकान आदिमें रहना, दूसरेको उसमें आनेसे नहीं रोकना, शास्त्रानुसार भिक्षाचर्या, 'यह मेरा और यह तेरा' इस प्रकार साधर्मीजनोंसे विसंवाद नहीं करना, ये पाँच अचौर्यव्रतकी भावनाएँ हैं। स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरस _स्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ - स्त्रीरागकथाश्रवणवर्जन, उनके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग, पूर्वभुक्त विषयोंके स्मरणका त्याग, उन्मादक भोजन आदिका त्याग और शरीर-संस्कारका त्याग ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रतकी भावनाएँ हैं। .. मनोज्ञामनोझेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ पाँचों इन्द्रियोंके इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वषका त्याग करना अपरिग्रहप्रतकी पाँच भावनाएं हैं। हिंसादि पापोंके सम्बन्धमें ये विचार करने चाहिए हिंसादिष्विहामुत्रापायावयदर्शनम् ॥९॥ हिंसाविक इस लोक और परलोकमें अपाय और अवच करनेवाले हैं। ६१-२. अभ्युदय और निःश्रेयसके साधनोंका नाशक अनर्थ अपाय है। अथवा इहलोकभय परलोकभय आदि सात प्रकारके भय अपाय हैं । अवध अर्थात् गर्य निन्दनीय । हिंसक कि दिन रहता है, सतत उसके वैरी रहते हैं, यहीं वह बन्ध क्लेश आदिको पाता है और मरकर अशुभगतिमें जाता है । लोकमें निन्दनीय भी होता है । अतः हिंसासे विरक्त होना कल्याणकारी है। मिथ्याभाषीका कोई विश्वास नहीं करता । वह यहीं जिलाछेद आदि दंड भुगतता है। जिनके सम्बन्धमें झूठ बोलता है वे उसके वैरी हो जाते हैं। अतः उनसे भी अनेक आपत्तियाँ आती हैं। मरकर अशुभगतिमें जाता है निन्दनीय भी होता है । अतः असत्य बोलनेसे विरक्त होना कल्याणकारी है। चोरका सब तिरस्कार करते हैं। यहीं मार-पीट वध-बन्धन हाथ-पैर कान-नाक आदिका छेदन और सर्वस्वहरण आदि दंडोंको भोगता है । मरकर अशुभ गतिमें जाता है और निन्दित भी होता है। अतः चोरीसे विरक्त होना श्रेयस्कर है। कुशीलसेवी मदोन्मत्त हाथीकी तरह हथिनीके पीछे घूमता हुआ विवश होता है और वध-बन्धन क्लेश आदिका अनुभव करता है। मोहाभिभूत होनेसे कार्याकार्यके विवेकसे वंचित होकर किसी शुभकर्मके करनेके लायक नहीं रहता। परस्त्रीगामी तो यहीं लिंगच्छेद वध बन्धन और सर्वस्वहरण आदि दंड भोगते हैं। मरकर अशुभगतिमें जाते हैं, निन्दित भी होते हैं अतः अब्रह्मसे विरक्त होना श्रेयस्कर है। परिग्रही पुरुष मांसखण्डको लिये हुए पक्षीकी तरह अन्य पक्षियोंके द्वारा झपटा जाता है। चोरोंके द्वारा तिरस्कृत होता है। परिप्रहके अर्जन रक्षण और विनाशमें अनेक संक्लेशोंको पाता है। इन्धनसे अग्निकी तरह इसकी परिग्रहसे तृप्ति नहीं होती। लोभाभिभूत होनेसे कार्य-अकार्यसे अनभिज्ञ बन जाता है । मरकर अशुभगतिमें जाता है । 'लोभी है' इत्यादि
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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