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________________ ७२० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [६।१८-२२ लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, गुरु देवता अतिथि पूजामें रुचि, दानशीलता, कपोतपीतलेश्यारूपपरिणाम, मरणकालमें धर्मध्यानपरिणति आदि मनुष्यायुके आस्रवके कारण हैं। स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ ६१-२. उपदेशके बिना होनेवाला स्वाभाविक मृदुस्वभाव भी मनुष्य आयुके आस्रवका कारण है। स्वभाव मार्दवका निर्देश पृथक् सूत्र बनाकर इसलिए किया है कि इस सूत्रका सम्बन्ध आगे बताये जानेवाले देवायुके आस्रवोंसे भी करना है। निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥१९॥ ६१-४. शील और व्रतोंसे रहितपना सभी आयुओंके आस्रवका कारण है। 'च' शब्दसे अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहत्वका समुच्चय कर लेना चाहिए । 'सर्वेषाम्'से देवायुका ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु पीछे कही गई तीनों आयुओंका । यद्यपि पृथक सूत्र बनानेसे ही बीती हुई आयुका बोध हो जाता है फिर भी 'सर्वेषाम्' पदका प्रयोजन यह है कि निःशीलत्व और निर्धतत्व . भी देवायुके आस्रवके कारण होते हैं पर वह भोगभूमिया जीवोंकी अपेक्षा समझना चाहिए । देवायुके आस्रवका कारण सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥ सरागसंयम आदि शुभ परिणाम देवायुके आस्रवके कारण हैं । कल्याणमित्रसंसर्ग, आयतनसेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास, तपकी भावना, बहुश्रुतत्व, आगमपरता, कषायनिग्रह, पात्रदान, पीतपद्मलेश्यापरिणाम, मरणकालमें धर्मध्यानरूपपरिणति आदि सौधर्म आदि स्वर्गकी आयुके आस्रव हैं। अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शनकी विराधना आदि भवनवासी आदिकी आयुके अथवा महर्धिक मनुष्यकी आयुके आस्रव कारण हैं । पंच अणुव्रतोंके धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शनकी विराधना हो जाय तो भवनवासी आदिमें उत्पन्न होते हैं । तत्त्वज्ञानसे रहित बालतप तपनेवाले अज्ञानी मन्द कषायके कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्रार स्वर्गपर्यन्त उत्पन्न होते हैं, कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं तथा तिर्यंच भी। अकामनिर्जरा, भूख प्यासका सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मलधारण आदि परीषहोंसे खेदखिन्न न होना, गूढ़ पुरुषोंके बन्धनमें पड़नेपर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होनेपर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वतके शिखरसे झम्पापात करना, अनशन अग्निप्रवेश विषभक्षण आदिको धर्म माननेवाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तियेचों में उत्पन्न होते हैं। जिनने व्रत या शीलोंको धारण नहीं किया किन्तु जो सदय हृदय हैं, जलरेखाके समान मन्दकषायी हैं तथा भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले व्यन्तर आदिमें उत्पन्न होते हैं । __ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ सम्यक्त्व भी देवायुके आस्रवका कारण है। ६१-२. पृथक् सूत्र बनानेसे ज्ञात होता है कि सम्यक्त्व सौधर्मादि स्वर्गवासी देवोंकी आयुके आस्रवका कारण है । इस सूत्रसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सरागसंयम और संयमासंयम भी विमानवासियोंकी ही आयुके आस्रवके कारण होते हैं, भवनवासी आदिकी आयुके नहीं। अशुभ नामकर्मक आस्रव करण योगवक्रता विसंवादनं चाऽशुभस्य नाम्नः ॥२२॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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