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________________ ६।२३-२४ ] छठाँ अध्याय ७२१ ९१-३. मनवचनकायकी कुटिलवृत्तिरूप योगवक्रता तथा अन्य प्रकारसे प्रवृत्ति और प्रतिपादनरूप विसंवाद अशुभनामके आस्रवके कारण हैं। योगवक्रता आत्मगत है तथा विसंवादन परसे सम्बन्ध रखता है । कोई पुरुष सम्यक् अभ्युदय और निःश्रेयसकी कारणभूत कियाओं में प्रवृत्ति कर रहा है उसे काय वचन और मन द्वारा 'ऐसा मत करो यह करो' आदि रूपसे कुटिल प्रवृत्ति कराना विसंवाद है । § 8. च शब्द अनुक्तके समुच्चयार्थ है । मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिर चित्तस्वभावता, झूठे बांट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अंग उपांगों का छेदन, वर्ण गन्ध रस स्पर्शका विपरीतपना, यन्त्र पिंजरा आदि बनाना, माया बाहुल्य, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण, महारम्भ, महापरिग्रह शौकीन वेप, रूपका घमंड, कठोर असभ्यभाषण, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरे में कुतूहल उत्पन्न करना, भूषणों में रुचि, मंदिरके गन्ध माल्य धूप आदिका चुराना, लम्बी हँसी, ईंटोंका भट्टा लगाना, वनमें दावाग्नि जलाना, प्रतिमायतन-विनाश, आश्रय विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीव्र क्रोध मान माया लोभ और पापकर्मजीविका आदि भी अशुभ नामके आवके कारण हैं । शुभनामके आके कारण तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ मन वचन कायकी सरलता और अविसंवादन शुभ नामकर्मके आस्रवके कारण हैं। च शब्दसे धार्मिक व्यक्तियोंके प्रति आदरभाव, संसार-भीरुता, अप्रमाद, निश्छलचारित्र आदि पूर्वोक्त अशुभ नामके आम्रवके विपरीत भावोंका समुच्चय कर लेना चाहिए । अनन्त अनुपम अचिन्त्य विभूतिका कारण त्रैलोक्योत्कृष्ट तीर्थंकर नामके आस्रवके कारणदर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता-शीलवतेष्वनति चारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन भक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना- प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवके कारण हैं । ११. जिनोपदिष्ट निर्मन्थ मोक्षमार्ग में रुचि दर्शन विशुद्धि है । उसके आठ अंग हैं । इसलोक परलोक व्याधि मरण अगुप्ति अरक्षण और आकस्मिक इन सात भयोंसे मुक्त रहना, अथवा जिनोपदिष्ट तत्त्वमें 'यह है या नहीं' इस प्रकारकी शंका नहीं करना निःशंकित अंग है । धर्मको धारण करके इस लोक और परलोकमें विषयोपभोगकी आकांक्षा नहीं करना और अन्य मिध्यादृष्टिसम्बन्धी आंकाक्षाओंका निरास करना निष्कांक्षित अंग है | शरीरको अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्वके मिथ्या संकल्पको छोड़ देना, अथवा अर्हन्तके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में 'यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सब नहीं बनता' आदि प्रकारकी अशुभ भावनाओंसे चित्तविचिकित्सा नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग । बहुत प्रकार के मिध्यानयवादियों के दर्शनों में तत्त्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर मोहरहित होना अमूढदृष्टिता है । उत्तम क्षमा आदि धर्मभावनाओंसे आत्माकी धर्मवृद्धि करना उपबृंहण है । कषायोदय आदिले धर्मभ्रष्ट होनेके कारण उपस्थित होनेपर भी अपने धर्म से परिच्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण है । जिनप्रणीत धर्माभृतसे नित्य अनुराग करना वात्सल्य है । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभावसे आत्माको प्रकाशमान करना प्रभावना है ।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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