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________________ ६७-८] छठाँ अध्याय स्पन्द रूप तथा दूसरा अपरिस्पन्द रूप । अपरिस्पन्द रूप भाव अस्तित्व आदि हैं, जो अनादि हैं । परिस्पन्दात्मक भाव उत्पाद और व्यय रूप हैं, जो कि आदिमान हैं । अपरिस्पन्द रूप भाव सामान्यात्मक है, वह तीव्र आदिका भेदक नहीं हो सकता परन्तु काम आदिकी क्रियारूप जो भाव है वह कायादिके अस्तित्व और तीव्र आदिका भेदक होता ही है। तात्पर्य यह कि तोत्र आदिमें बौद्धिक व्यापारसे विशेषता होतो है । अथवा, भाववाले आत्मासे अभिन्न होनेके कारण तीव्र आदि भी भाव हैं । एक एक कषायादि स्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण भाव होते हैं। वे ही यहाँ विवक्षित हैं, एक सत्तारूप भाव नहीं। ९-११. यद्यपि वीर्य-शक्ति आत्मपरिणामरूप है और वह जीवाधिकारणका परिणाम होनेसे 'अधिकरण में ही गृहीत हो जाता है फिर भी शक्तिविशेषसे हिंसा आदिमें विशेषता आती है और उससे आस्रवमें विशेषता आती है यह सूचन करनेके लिए उसको ग्रहण किया है। वीर्यवान आत्माके तीव्र तीव्रतर और तीव्रतम आदि परिणाम होते हैं । आम्रवमें फलभेद बतानेके लिए ही तीव्र आदिका पृथक ग्रहण किया है, अन्यथा केवल 'अधिकरण'से ही सब कार्य चल सकता था, क्योंकि तीव्र आदि जीवाधिकरणरूप ही हैं। कारणभेदसे कार्यभेद अवश्य होता है। अतः जब तीव्र आदि अनुभागके भेदसे आस्रव अनन्त प्रकारका हो गया तो उसके कार्यभूत शरीर आदि भी अनन्त ही प्रकारके होते हैं । अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥ १-३. यद्यपि जीव और अजीवकी व्याख्या हो चुकी है, फिर भी यहाँ अधिकरणविशेष रूपसे उनका निर्देश किया गया है । हिंसा आदिके उपकरण रूपसे जीव और अजीव ही अधिकरण होते हैं। 'अनन्तपर्यायविशिष्ट जीव और अजीव अधिकरण बनते हैं। इस बातकी सूचना देनेके लिए सूत्र में बहुवचन दिया गया है। ४-५. 'जीव और अजीव ही अधिकरण' ऐसा समानाधिकरण अर्थमें समास करनेपर जीवत्व और अजीवत्वसे विशिष्ट अधिकरणमात्रकी प्रतिपत्ति होगी, आस्रवविशेषका ज्ञान नहीं हो सकेगा । 'जीव और अजीवका अधिकरण' ऐसा भिन्नाधिकरणक पष्ठी समास करनेपर भी जीव और अजीवके आधारमात्रका ही ज्ञान होगा आस्रवविशेपका नहीं। अतः प्रकृतपाठ ही ठीक है। 'जीव और अजीव किसके अधिकरण हैं ? यह प्रश्न होनेपर 'अर्थक वशसे विभक्तिका परिणमन होता है। इस नियमके अनुसार 'आस्रवस्य' यह आस्रवका सम्बन्ध हो जाता है । जैसे कि 'देवदत्तके ऊँचे मकान हैं उसे बुलाओ' यहाँ उसके साथ देवदत्तका कर्मकारक रूपसे सम्बन्ध हो जाता है। दोनों अधिकरण दस प्रकारके हैं-विष लवणक्षार कटुक अम्ल स्नेह अग्नि और खोटे रूपसे प्रयुक्त मन-वचन और काय । आधं मरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषत्रित्रिश्चतुश्चैकशः ॥८॥ १. यद्यपि आगेके सूत्र में 'पर' शब्द देनेसे यह अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि इस सूत्रमें आद्य जीवाधिकरणका वर्णन है फिर भी स्पष्ट अर्थबोधके लिए इस सूत्र में 'आद्य पद दे दिया है। २-१७. प्रमादवान् पुरुषका प्राणघात आदिके लिए प्रयत्न करनेका संकल्प संरम्भ है। उसके साधनोंका इकट्ठा करना समारम्भ है। कार्यको शुरू कर देना आरम्भ है। ये तीनों शब्द भावसाधन हैं। योग शब्दका व्याख्यान प्रथमसूत्रमें किया जा चुका है। आत्माने जो स्वतन्त्र भावसे किया वह कृत है। दूसरेके द्वारा कराया गया कारित है। करनेवालेके मानसपरिणामोंकी स्वीकृति अनुमत है । जैसे कोई मौनी व्यक्ति किये जानेवाले कार्यका यदि निषेध नहीं करता तो वह उसका अनुमोदक माना जाता है उसी तरह करानेवाला प्रयोक्ता होनेसे और उन परिणामोंका समर्थक होनेसे अनुमोदक है । क्रोधादि कषायें कही जा चुकी हैं। विशेष शब्द.
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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