SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१२ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ६९ का प्रत्येक में अन्वय कर लेना चाहिए और यहाँ 'भिद्यते' क्रिया पदका अध्याहार करके 'विशेषैः ' निर्देशकी सार्थकता समझ लेनी चाहिए; क्योंकि कर्ता और करणका निर्देश क्रियापदके होनेपर ही सार्थक होता है । जैसे 'शंकुलया खंड : ' में अप्रयुक्त 'कृत' क्रियाकी अपेक्षा निर्देश है वैसे यहाँ भी समझना चाहिए । अथवा, 'पूर्वस्य भेदा:' इस सूत्रांशमें भेद शब्दका अधिकार चला आ रहा है, उसकी अपेक्षा 'विशेषैः' में करण निर्देश उपयुक्त है । त्रित्रि आदि सुजन्त संख्याशब्दोंका क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिए । एकशः वीप्सार्थक निर्देश है अर्थात् एक एकके भेद समझना चाहिए । ९१८-१९. संरम्भ आदि तीन वस्तुवाची हैं अतः इनका प्रथम ग्रहण किया है, बाक़ी वस्तुके भेद हैं | योग आदिका आनुपूर्वीसे कथन पूर्व और उत्तर दोनोंके विशेषणार्थ है । तात्पर्य यह कि - क्रोधादि चार और कृत आदि तीनके भेदसे कायादि योगोंके संरम्भ समारम्भ और आरम्भसे विशिष्ट करने पर प्रत्येकके छत्तीस छत्तीस भेद होते हैं । क्रोधकृतकायसंरम्भ, मानकृतकायसंरम्भ, मायाकृतकायसंरम्भ, लोभकृतकायसंरम्भ, क्रोधकारितकायसंरम्भ, मानकारितकायसंरम्भ, मायाकारितकायसंरम्भ, लोभकारितकायसंरम्भ, क्रोधानुमतकायसंरम्भ, मानानुमतकायसंरम्भ, मायानुमतकायसंरम्भ और लोभानुमतकायसंरम्भ। इस प्रकार संरम्भ बारह प्रकारका है । समारम्भ आरम्भ भी इसी तरह बारह बारह प्रकार के होकर कुल छत्तीस प्रकार काययोगके होते हैं । इसी तरह वचन और मनके भी छत्तीस - छत्तीस प्रकार मिलकर कुल १०८ प्रकार जीवाधिकरणके होते हैं । कहा भी है- “क्रोध आदि और कृत आदिके द्वारा काय संरम्भ १२ प्रकारका है और समारम्भ तथा आरम्भ भी इसी प्रकार बारह बारह प्रकारका होता है। इस तरह कुल छत्तीस भेद हो जाते हैं ।" ९२०-२१ च शब्दसे क्रोधादिके अन्य विशेषोंका भी संग्रह ! जाता है। अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलनसे उक्त भेदोंको गुणा करनेपर कुल ४३२ भेद हो जाते हैं । जैसे नीले रंगमें डाला गया वस्त्र नीलरंगसे नील हो जाता है उसी तरह संरम्भ आदि क्रियाएँ अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंसे अनुरंजित होती हैं । अतः ये भी जीवाधिकरण हैं । I अजीवाधिकरणके भेद निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ||९|| ९१-३ निर्वर्तना आदि शब्द कर्मसाधन और भावसाधन दोनों हैं । जब निर्वर्तना आदि शब्द कर्मसाधन हैं तब 'निर्वर्तना ही अधिकरण' ऐसा सामानाधिकरण्य रूपसे अधिकरण शब्दका सम्बन्ध कर लेना चाहिए। जिस समय भावसाधन होते हैं तब 'विशिष्यन्ति' क्रियाका अध्याहार करके 'निर्वर्तना आदि भाव पर अधिकरणको विशिष्ट करते हैं' ऐसा भिन्नाधिकरण रूपसे अधिकरण शब्दका सम्बन्ध कर लेना चाहिए । निर्वर्तना- उत्पत्ति, निसर्ग - स्थापना, संयोगमिलाना और निसर्ग-प्रवृत्ति । 'द्वि चतुर आदि हैं भेद जिसके' ऐसा द्वन्द्वगर्भ बहुव्रीहि समास 'द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः' में समझना चाहिए । ९४ - ११. प्रश्न - इस सूत्र में 'पर' शब्द निरर्थक है क्योंकि पहिले सूत्रमें 'आद्य' शब्द देनेसे अर्थात् ही यह 'पर' सिद्ध हो जाता है या फिर प्रथम सूत्र में 'आद्य' शब्द व्यर्थ क्योंकि सारा प्रयोजन अर्थापत्ति से सिद्ध हो जाता है । अर्थापत्तिको अनैकान्तिक कहना उचित नहीं है क्योंकि 'अहिंसा धर्म है' यह कहनेसे जिस प्रकार 'हिंसा अधर्म है' यह सिद्ध होता ही है। उसी तरह मेघके अभाव में वृष्टि नहीं होती' यह कहने से 'मेघके होनेपर वृष्टि होती है' यह भी सिद्ध होता ही है । कभी मेघके होनेपर भी वृष्टिके न देखे जानेसे इतना ही कह सकते हैं कि वृष्टि 'मेघ के होनेपर ही होगी' अभाव में नहीं । 'पर शब्द यदि न दिया जायगा तो यह सूत्र
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy