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________________ ७१० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [६६ की क्रिया होती है। मान कारण है, नम्र न होना कार्य है, इनसे अपूर्वाधिकरण उत्पन्न करनेवाली प्रात्यायिकी क्रिया भिन्न है । माया कारण है, कुटिलता कार्य है, इनसे ज्ञानदर्शन और चारित्रमें माया प्रवृत्ति रूप क्रिया होती है। प्राणातिपात कारण है और प्राणातिपातिकी क्रिया कार्य है । मृषावाद चोरी और कुशील कारण है और असंयमके उदयसे आज्ञाव्यापादिका क्रिया कार्य है। इसी तरह अन्य भी समझना चाहिए। १६. प्रश्न-इन्द्रियोंसे ही ज्ञान करके और विचारके बाद कपाय अव्रत और क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है अतः इन्द्रियका ही ग्रहण करना चाहिए । कषाय अव्रत और क्रियाएँ तो अर्थात् ही गृहीत हो जाती हैं, उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए। इससे सूत्र भी लघु हो जायगा ? उत्तर-यदि इन्द्रियोंको ही आस्रवमें गिना जाय तो छठवें गुणस्थान तक ही आस्रवका विधान होगा अप्रमत्तके नहीं। प्रमत्त ही चक्षु आदि इन्द्रियोंसे रूपादिक विषयोंके सेवनके प्रति आसक्त होता है। या सेवन न भी करे तो भी हिंसादिकी कारणभूत अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ रूप आठ कषायोंसे युक्त होता हुआ हिंसादि करता है, न भी करे तो भी प्रमादी होनेसे सतत कर्मोंका आस्रव करता है । परन्तु अप्रमत्त व्यक्ति पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंसे रहित होकर मात्र योग और कषायनिमित्तक ही आस्रव करता है। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियोंमें यथासम्भव चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मनोविचारके न होने पर भी क्रोधादि-हिंसा पूर्वक कर्मग्रहण होता ही है। अतः सर्वसंग्रहके लिए कषाय आदिका ग्रहण करना उचित है। १७. प्रश्न-राग-द्वेषसे रहित व्यक्ति न तो इन्द्रियोंसे विषय ग्रहण करता है और न जीवहिंसा या असत्य आदिमें प्रवृत्ति करता है, अतः कषायके ग्रहण करनेसे सभी साम्परायिक आस्रवोंका ग्रहण हो ही जाता है, इन्द्रिय अव्रत और क्रियाओंका प्रहण नहीं करना चाहिए ?उत्तर-उपशान्तकषायी साधुके कषायका सद्भाव रहने मात्रसे चक्षुरादिके द्वारा रूपादि विषयोंका ग्रहण करनेके कारण राग द्वेष और हिंसा आदिकी उत्पत्तिका प्रसंग होगा । यदि रूपादिके ग्रहण करने मात्रसे रागी-द्वेषीपना आता हो तो कोई वीतराग नहीं हो पायगा। चक्षु आदिके द्वारा रूपादिका ग्रहण होनेपर भी कोई व्यक्ति वीतराग रह सकता है । अतः कषाय मात्रका प्रहण करना ठीक नहीं है। १८. यद्यपि अब्रतमें इन्द्रिय कषाय और क्रियाएँ अन्तर्भूत हो सकती हैं किन्तु अव्रतकी प्रवृत्तिमें इन्द्रिय कषाय और क्रियाएँ निमित्त हैं यह प्रवृत्तिनिमित्तता द्योतन करनेके लिए इन्द्रिय कषाय और क्रियाओंका पृथक् ग्रहण किया है। आस्रवकी विशेषताके कारण तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥६॥ तीव्र आदि भावोंसे आस्रवमें विशेषता होती है। ६१-७, बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यन्त प्रवद परिणामोंको तीव्र कहते हैं । इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मन्द हैं। मारनेके परिणाम न होनेपर भी हिंसा हो जानेपर 'मैंने मारा' यह जान लेना ज्ञात है । अथवा, 'इस प्राणीको मारना चाहिए' ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञात है। मद या प्रमादसे गमनादि क्रियाओंमें बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात है । अधिकरण अर्थात् आधारभूत द्रव्य । द्रव्यको शक्तिको वीर्य कहते हैं। 'भाव' शब्द प्रत्येकमें लगा देना चाहिए-तीव्रभाव मन्दभाव ज्ञातभाव अज्ञातभाव आदि। ६८. भावका अर्थ सत्ता नहीं है जिससे वह गोत्वादिकी तरह तीब्र आदिका भेदक न हो सके; किन्तु भावका अर्थ बौद्धिक व्यापार है। नोद्रव्योंके भाव दो प्रकारके हैं-एक परि
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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