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________________ ६५] छठाँ अध्याय समान वैर और रोषपूर्ण होती हैं।" प्रदोषके बाद प्रयत्न करना कायिकी क्रिया है ॥७॥ हिंसाके उपकरणोंको ग्रहण करना आधिकरणकी क्रिया है । ८॥ दूसरेको दुःख उत्पन्न करनेवाली पारितापिकी क्रिया है।९।। आयु, इन्द्रिय बल आदिका वियोग करनेवाली प्राण. तितिकी क्रिया है ॥१०॥ रागाविष्ट होकर प्रमादी पुरुषका रमणीय रूपके देखनेकी ओर प्रवृत्ति दर्शनक्रिया है ॥११॥ प्रमादवश छूनेकी प्रवृत्ति स्पर्शन क्रिया है ॥१२॥ चक्षु इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियोंमें इन इन्द्रियों द्वारा होनेवाले ज्ञानका ग्रहण है तथा यहाँ ज्ञानपूर्वक हलन-चलनका ग्रहण है। नये-नये अधिकरणोंको उत्पन्न करना प्रात्यायिकी क्रिया है ॥१३॥ स्त्री-पुरुष, पशु आदिसे व्याप्त स्थानमें मलोत्सर्ग करना समन्तानुपातन किया है ॥१४॥ बिना शोधी और बिना देखी भूमिपर शरीर आदिका रखना अनाभोग क्रिया है॥१५॥ दूसरेके द्वारा करने योग्य क्रियाको स्वयं करना स्वहस्त किया है॥१६॥ पापादान आदिको स्वीकार करना निसर्ग क्रिया है॥१७॥ आलस्यसे प्रशस्त क्रियाओंका न करना और परके पाप आदिका प्रकाशन करना विदारण क्रिया है ॥१८॥ चारित्रमोहके उदयसे आवश्यक आदि क्रियाओंके करने में असमर्थ होने पर शास्त्राज्ञाका अन्यथा ही निरूपण करना आज्ञाव्यापादिका क्रिया है ।।१९।। मूर्खता और आलस्यसे शास्त्रोपदिष्ट विधि-विधानोंके प्रति अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है ॥२०॥ छेदनभेदन हिंसा आदि क्रियाओं में तत्पर होना अथवा अन्यके द्वारा हिंसादि व्यापार किये जानेपर हर्षित होना आरम्भ क्रिया है ।।२१।। परिग्रहके नष्ट न होने देनेके लिए जो व्यापार है वह पारिवाहिकी क्रिया है ।।२२।। ज्ञान-दर्शन आदिमें छल-कपट करना माया क्रिया है॥२३॥ मिथ्यात्वके कार्योकी प्रशंसा करके दूसरेको मिथ्यात्वमें दृढ़ करना मध्यादर्शन क्रिया है ॥२४॥ संयमघाती कमेके उदयसे विषयोंका प्रत्याख्यान-त्याग नहीं करना अप्रत्याख्यान क्रिया है ॥२५॥ १२. प्रश्न-इन्द्रिय कषाय और अव्रत भी क्रिया स्वभाव ही हैं अतः उनका पृथक ग्रहण करना निरर्थक है ? उत्तर-यह एकान्त नियम नहीं है कि इन्द्रिय कषाय और अव्रत क्रियास्वभाव ही हों। नाम स्थापना और द्रव्यरूप इन्द्रिय कषाय और अव्रतों में परिस्पन्दात्मक क्रियारूपता नहीं है । नामेन्द्रिय आदि तो शब्दमात्र हैं, अतः इसमें तो क्रियारूपता है नहीं । स्थापना इन्दिय आदि 'यह वही है। इस प्रकारके शब्द और विज्ञानमें कारण होते है, अतः इनमें भी क्रियारूपता नहीं कही जा सकती। द्रव्यरूप इन्द्रियादिमें तो चाहे वह अतीत रूप हो या भावियोग्यता रूप, वर्तमान इन्द्रियादिरूपता है नहीं अतः उसमें परिस्पन्दात्मक क्रियारूपता नहीं हो सकती। अथवा, यह कोई नियम नहीं है कि इन्द्रिय कषाय आदि क्रियारूप ही हों। द्रव्यार्थिकको गौण करनेपर पर्यायार्थिककी प्रधानतामें इन्द्रिय कषाय और अव्रतको कथंचित् क्रियारूप कह सकते हैं पर पर्यायार्थिकको गौण और द्रव्यार्थिकको मुख्य करनेपर क्रियारूपता नहीं भी है। १३-१४ 'इन्द्रिय कषाय और अव्रत शुभ और अशुभ आस्रव परिणामके अभिमुख होनेसे द्रव्यास्रव हैं। कर्मका ग्रहण भावास्रव है। वह पच्चीस क्रियाओंके द्वारा होता है। इसलिए इन्द्रिय कषाय और अव्रतका ग्रहण किया है' यह समाधान उचित नहीं है, क्योंकि इससे प्रतिज्ञाविरोध होता है। 'कायवाङमनःकर्म योगः, स आस्रवः' इन सूत्रोंसे द्रव्यास्रवका ही निरूपण किया गया है। १५. निमित्तनैमित्तिकभाव झापन करनेके लिए इन्द्रिय आदिका पृथक् ग्रहण किया है। छूना आदि क्रोध करना आदि और हिंसा करना आदि क्रियाएँ आस्रव हैं। ये पञ्चीस क्रियाएँ इन्हींसे उत्पन्न होती हैं। इनमें तीन परिणमन होते हैं। जैसे मूर्छा-ममत्व परिणाम कारण है, परिग्रह कार्य है। इनके होनेपर पारिग्राहिकी क्रिया भिन्न ही होती है जो कि परिग्रहके संरक्षण अविनाश और संस्कारादि रूप हैं । क्रोध कारण है प्रदोष कार्य है इनसे प्रादोषि
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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