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________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ६५ सकषाय जीवोंके साम्परायिक और अकषायजीवोंके ईर्यापथ आस्रव होता है । $ १-७. आस्रवके अनन्त भेद होनेपर भी सकपाय और अकषाय स्वामियोंकी अपेक्षा दो भेद हैं। क्रोधादि परिणाम आत्माको वुगतिमें ले जानेके कारण कषते हैं -आत्माके स्वरूपकी हिंसा करते हैं, अतः ये कषाय हैं । अथवा जैसे वटवृक्ष आदिका चेंप चिपकने में कारण होता है उसी तरह क्रोध आदि भी कर्मबन्धनके कारण होनेसे कषाय हैं । कर्मों के द्वारा चारों ओरसे स्वरूपका अभिभव होना सम्पराय है, इस सम्परायके लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव है। ईर्या अर्थात् योगगति, जो कर्म मात्र योगसे ही आते हैं वे ईर्यापथ आस्रव हैं । सकषाय जीवके साम्परायिक और अकषाय जीवके ईर्यापथ आस्रव होता है । मिथ्या दृष्टिसे लेकर दसवें गुणस्थान तक कषायका चेंप रहनेसे योगके द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं, उनमें स्थितिबन्ध हो जाता है, यह साम्परायिक आस्रव है । उपशान्तकषाय क्षीणकषाय और सयोगकेवली के योगक्रियासे आये हुए कर्म कपायका चेंप न होनेसे सूखी दीवाल पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बँधते नहीं हैं; यह ईर्यापथ आस्रव है । ७०८ ८. यद्यपि 'अजाद्यत्' सूत्र के अनुसार अकषाय और ईर्यापथ शब्दोंका पूर्व प्रयोग होना चाहिए था, परन्तु साम्परायिक और सकषायके सम्बन्ध में बहुत वर्णन करना है अतः इसी दृष्टिसे उन्हें अभ्यर्हित मानकर उनका पूर्व प्रयोग किया है । साम्परायिक आस्रवके भेद इन्द्रियकषायात्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः || ५ ॥ ९१-५ इन्द्रिय आदिमें इतरेतरयोग द्वन्द्व समास है । पंच आदिका संख्या शब्दसे समास करके उनका यथाक्रम अन्वय कर देना चाहिए। पूर्व अर्थात् पहिले सूत्रमें जिसका प्रथम निर्देश किया है । भेद अर्थात् प्रकार । पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पाँच अव्रत और पश्चीस क्रियाएँ पूर्व साम्परायिक आस्रव के भेद हैं । १६. इन्द्रियादिका आत्मासे कथचित् भेद और कथञ्चित् अभेद है । अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्यार्थादेश से इन्द्रियादिका अभेद है और कर्मोदय-क्षयोपशमनिमि कपर्यायार्थादेश से भिन्नता है । इन्द्रियादिकी निवृत्ति होनेपर भी द्रव्य स्थिर रहता है । इसीलिए पर्यायभेदसे पाँच आदि भेद बन जाते हैं । स्पर्शादि पाँच इन्द्रियोंका वर्णन कर चुके हैं क्रोधादिकपाय और हिंसादि अव्रतका वर्णन आगे करेंगे । पचीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं $ ७-११. चैत्य गुरु शास्त्रकी पूजा आदि सम्यक्त्वको बढ़ानेवाली क्रिया सम्यक्त्वक्रिया है। ॥१॥ अन्यदेवताका स्तवन आदि मिथ्यात्व हेतु प्रवृत्ति मिथ्याल क्रिया है ||२||शरीर आदिके द्वारा गमन आगमन आदि प्रवृत्ति करना प्रयोग क्रिया है । अथवा वीर्यान्तराय ज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर अंगोपांग नाम कर्म के उदयसे काय वचन और मनोयोगकी रचना में समर्थ पुद्गलोंका ग्रहण करना प्रयोग क्रिया है || ३ || संयम धारण करनेपर भी अविरतिकी तरफ झुकना समादान है || ४ || ईर्याथ आस्रव में कारणभूत क्रिया ईर्यावथ क्रिया है ||५|| क्रोधावेश से प्रवृत्ति प्रादोषिकी क्रिया है || ६ || क्रोध प्रदोष में कारण होता है अतः कार्यकारणके भेद से क्रोधकषाय और प्रादोषिकी क्रियामें भेद है। क्रोध अनिमित्त भी होता है पर प्रदोष क्रोधरूप निमित्तसे होता है । पिशुन स्वभाववाला व्यक्ति इष्ट दारा हरण धननाश आदि निमित्तोंके बिना स्वभावसे ही क्रोध करता है । किसी-किसीकी दृष्टिमें ही विष होता है। कहा भी है- "जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन चन्द्रका बिना किसी निमित्तके स्वभावसे ही उदय होता है उसी तरह कर्मवशी आत्मा के बिना निमित्तके ही क्रोधादि कपायोंका उदय होता है ।" तथा "दुर्जन पुरुषोंकी चेष्टाएँ, जिनकी लोल जिह्वा मृगोंके खून से लाल हो रही है ऐसे शार्दूल भेड़िया सर्प आदि निसर्ग हिंसक प्राणियों के
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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