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________________ ७०७ ६॥३-४] छठाँ अध्याय शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ शुभ योग पुण्य और अशुभयोग पापका आस्रव करता है। ३१-२. हिंसा चोरी मैथुन आदि अशुभ काययोग हैं। असत्य बोलना, कठोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग हैं। हिंसक विचार ईर्षा असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं। इत्यादि अनन्त प्रकारके अशुभ योगसे भिन्न शुभयोग भी अनन्त प्रकारका है। अहिंसा अचौर्य ब्रह्मचर्य आदि शुभ काययोग है । सत्य हित मित बोलना शुभ वाग्योग है। अर्हन्त भक्ति तपकी रुचि श्रुतकी विनय आदि विचार शुभ मनोयोग है। यद्यपि अध्यवसायस्थान असंख्येयलोकप्रमाण हैं फिर भी अनन्तानन्त पुद्गल प्रदेशरूपसे बँधे हुए ज्ञानावरण वीर्यान्तरायके देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकोंके क्षयोपशम भेदसे, अनन्तानन्त प्रदेशवाले कर्मों के ग्रहणका कारण होनेसे तथा अनन्तानन्त नाना जीवोंकी दृष्टि से तीनों योग अनन्त प्रकारके हो जाते हैं। ३. शुभपरिणाम पूर्वक होनेवाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणामसे होनेवाला अशुभयोग है। शुभ अशुभ कर्मका कारण होनेसे योगमें शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योंकि शुभ योग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मोके बन्धमें भी कारण होता है। ४-६. जो आत्माको प्रसन्न करे वह पुण्य अथवा जिसके द्वारा आत्मा सुखसाता अनुभव करे वह सातावेदनीय आदि पुण्य हैं । पुण्यका उलटा पाप । जो आत्मामें शुभपरिणाम न होने दे वह असातावेदनीय आदि पाप हैं। यद्यपि सोनेकी बेड़ी या लोहेकी बेड़ीकी तरह दोनों ही आत्माकी परतन्त्रतामें कारण हैं फिर भी इष्ट फल और अनिष्ट फलके भेदसे पुण्य और पापमें भेद है । जो इष्ट गति जाति शरीर इन्द्रिय विषय आदिका हेतु है वह पुण्य है तथा जो अनिष्ट गति जाति शरीर इन्द्रिय आदिका कारण है वह पाप है। शुभयोगसे पुण्यका आस्रव होता है और अशुभयोगसे पापका। ७. प्रश्न-जब घाति कर्मोंका बन्ध भी शुभ परिणामोंसे होता है तो 'शुभः पुण्यस्य' अर्थात डाभपरिणाम पण्यावके कारण हैं। यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है? उत्तर-अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप हैं, उनकी अपेक्षा पुण्यपापहेतुताका निर्देश है । अथवा 'शुभ पुण्य का ही कारण है' ऐसा अवधारण नहीं करते हैं; किन्तु शुभ ही पुण्यका कारण है' यह अवधारण किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि शुभ पापका भी हेतु हो सकता है। प्रश्न- यदि शुभ पापका और अशुभ पुण्यका भी कारण होता है, क्योंकि सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है। कहा भी है-"आयु और गतिको छोड़कर शेष कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितियोंका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशसे होता है और जघन्य स्थितिबन्ध मन्द संक्लेशसे " अतः दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते हैं। उत्तर-अनुभाग बन्धकी अपेक्षा सूत्रोंको लगाना चाहिए। अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सख दुःखरूप फलका निमित्त होता है। समस्त शुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंसे और समस्त अशुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामोंसे होता है। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभके जघन्य अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं पर बहुत शुभके कारण होनेसे 'शुभः पुण्यस्य' सूत्र सार्थक है, जैसे कि थोड़ा अपकार करनेपर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह 'अशुभः पापस्य में भी समझ लेना चाहिए। कहा भी है "विशुद्धिसे शुभप्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है तथा संक्लेशसे अशुभ प्रकृतियोंका । जघन्य अनुभाग बन्धका क्रम इससे उलटा है, अर्थात् विशुद्धिसे अशुभका जघन्य और संक्लेशसे शुभका जघन्य बन्ध होता है। आस्रवकी विशेषता सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥४॥
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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