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________________ ५।३६-३७] पाँचवाँ अध्याय ७०१ ही है पर सदृशोंका भी बन्ध होता है। इस तरह विषमगुणवालोंका और तुल्यजातीयोंका सामान्यरूपसे बन्ध प्रसंग होने पर इष्ट व्यवस्थाके प्रतिपादनके लिए सूत्र कहते हैं द्वयधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ $ १. दो अधिक अर्थात् चारगुण आदिका बन्ध होता है। ६२. आदि शब्द प्रकारार्थक है। चार आदि दो अधिक गुणवालोंका बन्ध होता है। चाहे तुल्यजातीय हों या अतुल्यजातीय, दो अधिक गुणवालोंका बन्ध होता है; अन्यका नहीं। दोगुणस्निग्ध परमाणुका एकगुणस्निग्ध दोगुणस्निग्ध और तीनगुणस्निग्धसे बन्ध नहीं होगा। चार गुणस्निग्धसे बन्ध होता है। इसी तरह उसका पाँच, छह, सात, आठ, नव, दश संख्यात असंख्यात और अनन्तगुणवाले स्निग्धसे बन्ध नहीं होता । इसी तरह तीन गुणस्निग्धका मात्र पाँच गुणस्निग्धसे तो बन्ध होगा चार या छह आदि आगे पीछे गुणवालोंसे नहीं। इसी तरह रूक्षमें भी समझना चाहिए । इसी प्रकार भिन्नजातीयों में भी दो अधिक गुणवालोंमें ही बन्ध होता है। द्विगुणरूक्षका चतुर्गुणस्निग्ध या चतुर्गुणरूक्षसे ही बन्ध होता है। पाँच या तीन आदि आगे पीछेके गुणवालोंसे नहीं। तीनगुणरूक्षका पाँच गुणरूक्ष या पाँच गुणस्नेहसे बन्ध होता है चार या छह आदि आगे पीछेके गुणवालोंसे नहीं । कहा भी है "स्नेहका दो अधिक गुणवाले स्नेहसे या रूक्षसे रूक्षका दो अधिक गुणवाले रूक्षसे या स्नेहसे बन्ध होता है। जघन्यगुणका किसी भी तरह बन्ध नहीं होता।" इस तरह उक्त विधिसे बन्ध होनेपर द्वयणुक आदि अनन्तपरमाणुक स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है। २. तु शब्दसे बन्धप्रतिषेधका प्रकरण बन्द होता है और इष्ट व्यवस्था सूचित होती है। प्र-पुद्गलोंके संयोगरूप बन्ध क्यों मानते हैं, परस्पर समुदायसे ही समस्त सामूहिक व्यवहार सिद्ध हो सकते हैं ? उत्तर-शुक्ल और कृष्ण तन्तुओंकी तरह यदि मात्र प्राप्ति ही है, उनमें एक दूसरेकी पारिणामकता नहीं है तो वह बन्ध नही कहा जायगा। उस पारिणामकताका नियम बताते हैं बन्धेऽधिको पारिणामको च ॥३७ । बन्ध होने पर अधिकगुणवाला न्यूनगुणवालेका अपने रूप परिणमन करा लेता है । १. गुणका प्रकरण है अतः अधिकौका अर्थ अधिक गुणवाले होता है। ६२. अवस्थान्तर उत्पन्न करना पारिणामकता है। जैसे अधिक मधुरगुणवाला गुड धूलि आदिको मीठे रसवाला बनाने के कारण पारिणामक होता है उसी तरह अन्य भी अ गुणवाला न्यून गुणवालोंका पारिणामक होता है। तात्पर्य यह कि दोगुणस्निग्ध परमाणुको चारगुण रूक्षपरमाणु पारिणामक होता है। बन्ध होने पर एक तीसरी ही विलक्षण अवस्था होकर एक स्कन्ध बन जाता है। अन्यथा सफेद और काले धागोंके संयोग होनेपर भी दोनों जुदे जुदेसे रखे रहेंगे । जहाँ पारिणामकता होती है वहाँ स्पर्श रस गन्ध वर्ण आदिमें परिवर्तन हो जाता है जैसे शुक्ल और पीत रंगोंके मिलनेपर हरे रंगके पत्र आदि उत्पन्न होते हैं। ३-४. श्वेताम्बर परम्परामें 'बन्धे समाधिको' पाठ है । इसका तात्पर्य है कि द्विगुणस्निग्धका द्विगुणरूक्ष भी पारिणामक होता है। पर यह पाठ उपयुक्त नहीं है। क्योंकि इसमें सिद्धान्तविरोध होता है। वर्गणामें बन्ध विधानके नोआगम द्रव्यबन्ध विकल्प-सादि वैस्रसिक बन्धनिर्देशमें कहा है कि-"विषम स्निग्धता और विषमरूक्षतामें बन्ध तथा समस्निग्धता और समरूक्षतामें भेद होता है।" इसीके अनुसार 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' यह सूत्र कहा गया
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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