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________________ ७०२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।३८ है। इससे समगुणवालोंके बन्धका जब प्रतिपेध कर दिया तब बन्धमें 'सम' भी पारिणामक होता है यह कथन आर्षविरोधी है । अतः विद्वानोंके द्वारा ग्राह्य नहीं है। ५. 'जघन्यवर्जे विषमे समे वा' का तात्पर्य यह है कि-सम अर्थात् तुल्यजातीय और विषम अर्थात् अतुल्यजातीय । अतः सम-चतुर्गुण स्निग्धका षड्गुण स्निग्धके साथ और और विषम-चतुर्गुणस्निग्धका षड्गुण रूक्षके साथ बन्ध होता है। बन्धकी इतनी लम्बी चरचा करनेका प्रयोजन यह है कि-आत्माके योगव्यापारसे आत्माके प्रदेशोंमें स्निग्धरूक्ष परिणत अनन्तप्रदेशी कर्म बन्धको प्राप्त होते हैं। ये ज्ञानावरणादि कर्म अपनी तीस कोड़ाकोड़ी सागर आदि तककी स्थिति तक घनपरिणामी बन्धको प्राप्त रहते हैं, विघटित नहीं होते। आपने 'द्रव्याणि, जीवाश्च' इन सूत्रोमें 'द्रव्य'का नामनिर्देश तो किया है, लक्षण नहीं बताया । अतः द्रव्यका लक्षण कहते हैं गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥३८॥ गुणपर्यायवाला द्रव्य होता है। १. यद्यपि गुण और पर्याय द्रव्यसे अभिन्न हैं, फिर भी 'गुणपर्ययवत्' यहाँ मत्वर्थीय प्रत्यय हो जाता है जैसे कि 'सोनेकी अंगूठी' में सोना और अँगूठीमें अभेद होनेपर भी भेदप्रयोग देखा जाता है । अथवा, लक्षण आदिकी दृष्टिसे गुणपर्यायोंका द्रव्यसे कथश्चित्, भेद भी है, अतः मत्वीय प्रयोग बन जाता है। २ -'गण' यह संन जैनमतकी नहीं है. यह तो अन्यमत वालोंकी है। जैनमतमें तो द्रव्य और पर्याय ये दो ही प्रसिद्ध हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दो नामोंका उपदेश होनेसे भी ज्ञात होता है कि द्रव्य और पर्याय ये दो ही हैं, गुण नहीं । यदि गुण होता तो उसको विषय करनेवाला तीसरा गुणार्थिकनय भी होना चाहिए था। अतः 'गुणपर्यायवत्' यह लक्षण ठीक नहीं है ? उत्तर-अर्हत्प्रवचनहृदय आदिमें 'गुण'का उपदेश है। अर्हत्प्रवचनमें 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इस सूत्रमें गुणका निर्देश है ही। अन्यत्र भी कहा है ___“ 'गुण' यह द्रव्यका विधान-अन्वय अंश है। द्रव्यके विकारको पर्याय कहते हैं। द्रव्य इनसे सदा अयुतसिद्ध है।" व्यके सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य उत्सर्ग अन्वय और गुण ये एकार्थक शब्द हैं । विशेष भेद और पर्याय ये पर्यायार्थक शब्द हैं। सामान्यको विषय करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है और विशेषको विपय करनेवाला पर्यायार्थिक । दोनों समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य हैं। अतः गुण जब द्रव्यका ही सामान्यरूप है तव उसके ग्रहणके लिए द्रव्यार्थिकसे पृथक् गुणार्थिक नयकी कोई आवश्यकता नहीं है। समुदायरूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाणका विषय होता है। ३-४. अथवा, गुणा एव पर्याया' ऐसा समानाधिकरणरूपसे निर्देश करेंगे। अर्थात् उत्पाद व्यय और घौव्य पर्याय नहीं है और न इनसे भिन्न गुण हैं । गुण ही पर्याय हैं इस समानाधिकरणतामें मतुप.प्रत्यय होनेपर 'गुणपर्यायवत्' यह निर्देश बन जाता है। गुणोंको ही पर्याय बनानेपर जब अर्थभेद नहीं रहा ; तब या तो गुणवत्' कहना चाहिए या फिर 'पर्यायवत्' निर्देश करना युक्त नहीं है ? भिन्न विशेषण निरर्थक हो जाता है। उत्तर-वैशेषिक आदि द्रव्यसे भिन्न 'गुण' पदार्थ मानते हैं। पर 'द्रव्यसे भिन्न कोई गुणपदार्थ नहीं है, क्योंकि द्रव्यसे भिन्न वे उपलब्ध ही नहीं होते । अतः द्रव्यका ही परिणमन-परिवर्तन पर्याय कहलाता है और उसका ही भेद गुण है, भिन्न पदार्थ नहीं है । इस तरह मतान्तरकी निवृत्तिके लिए पृथक् 'गुण' यह विशेषण देना उचित है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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