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________________ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ५/३३-३५ मयकी विषयभूत वस्तु ही मानी जाय तो व्यवहारका लोप हो जायगा क्योंकि पर्यायसे शून्य केवल द्रव्यरूप वस्तु नहीं है । और न केवल पर्यायार्थिकनयकी विषयभूत ही वस्तु है, वैसी वस्तुसे लोकयात्रा नहीं चल सकती, क्योंकि द्रव्यसे शून्य पर्याय नहीं होती । अतः वस्तुको उभयात्मक मानना ही उचित है । परमाणुओं के परस्पर बन्ध होने पर एकत्वपरिणति रूप स्कन्ध उत्पन्न होता है । यहाँ यह बताइए कि 'पुद्गल जाति समान होने पर और संयोग रहने पर भी क्यों किन्हीं परमाणुओंका बन्ध होता है अन्यका नहीं ?' इस प्रश्नके समाधानके लिए आगेका सूत्र कहते हैंस्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ ३३॥ ७०० स्निग्धता और रूक्षतासे बन्ध होता है । ९ १-५. बाह्य आभ्यन्तर कारणोंसे स्नेह पर्यायकी प्रकटतासे जो चिकनापन है वह स्नेह है और जो रूखापन है वह रूक्ष है। इन कारणोंसे द्वणुक आदि स्कन्धरूप बन्ध होता है । दो स्निग्ध रूक्ष परमाणुओंमें बन्ध होने पर द्वयणुक स्कन्ध होता है । स्नेह और रूक्षके अनन्त भेद हैं। अविभागपरिच्छेद एकगुणवाला स्नेह सर्वजघन्य है, प्रथम है । इसी तरह दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्नेह रूक्षके विकल्प हैं । जैसे जलसे बकरी के दूध और घीमें प्रकृष्ट स्निग्धता है, उससे भी प्रकृष्ट गायके दूध और घीमें उससे भी प्रकृष्ट भैंस के दूध घीमें, उससे भी प्रकृष्ट ऊँटनीके दूध और घीमें स्निग्धता देखी जाती हैं उसी तरह क्रमशः धूल से प्रकृष्ट रूखापन तुषखंड में और उससे भी प्रकृष्ट रूक्षता रेतमें पायी जाती है । इसी तरह परमाणुओंमें भी स्निग्धता और रूक्षताके प्रकर्ष और अपकर्षका अनुमान होता है । न जघन्यगुणानाम् ॥ ३४ ॥ सर्वजघन्य गुणवाले परमाणुओंमें बन्ध नहीं होता । ९ १-२ जैसे शरीर में जघन-जाँघ सबसे निकृष्ट है उसी प्रकार जघनकी तरह निकृष्ट अवयवको जघन्य कहते हैं। गुण शब्दके अनेक अर्थ हैं- जैसे 'रूपादिगुण' में गुणका अर्थ रूपादि हैं; 'दोगुणा ' में भाग अर्थ है 'गुणज्ञ' - उपकारज्ञमें उपकार अर्थ है 'गुणवान् देश' में द्रव्य अर्थ है; 'द्विगुण रज्जु' में समान अवयव अर्थ है; 'गुणभूतावयवम्' में गौण अर्थ है । पर यहाँ 'भाग' अर्थ विवक्षित है । तात्पर्य यह कि एकगुण स्निग्ध परमाणुका अन्य एकगुण स्निग्ध परमाणुसे, तथा दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्ध परमाणु से बन्ध नहीं होता । उसी एकगुण स्निग्धका एकगुण रूक्ष, तथा दो तीन संख्यात असंख्यात और अनन्तगुणरूक्षपरमाणु से बन्ध नहीं होता। इसी तरह एकगुण रूक्षका अन्य एकगुण रूक्ष या एकगुण स्निग्ध या दो तीन चार आदि अनन्तगुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुओंसे बन्ध नहीं होता । गुणसाम्ये सदृशानाम् ||३५|| गुणसाम्य रहनेपर सदृशोंका भी बन्ध नहीं होता । $ १-५. सदृश अर्थात् तुल्यजातीय, गुणसाम्य अर्थात् तुल्यभाग । गुणसाम्य पदसे सदृश ग्रहण निरर्थक नहीं होता; क्योंकि यदि सदृश ग्रहण नहीं करते तो द्विगुण स्निग्धों का द्विगुण रूक्षोंसे, त्रिगुणस्निग्धोंका त्रिगुणरूक्षों से गुणकार साम्य होनेके कारण वन्धका निषेध हो जाता । सदृश ग्रहण करनेसे द्विगुण स्निग्धका द्विगुण स्निग्धके साथ, द्विगुणरूक्षका द्विगुणरूक्षोंके साथ बन्धनिषेध सिद्ध हो जाता है । अथवा यह प्रयोजन नहीं है, क्योंकि द्विगुणस्निग्धों का द्विगुणरूक्षों के साथ बन्धका निषेध इष्ट है । १५. सदृशग्रहणका यह प्रयोजन है कि गुणवैषम्य होनेपर विसदृशोंका बन्ध तो होता
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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