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________________ ५।१९] पाँचवाँ अध्याय करती हैं। यदि मनके बिना इन्द्रियों में स्वयं सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंको सुख-दुःखका अनुभव नहीं होना चाहिए। गुणदोपविचार आदि मनके स्वतन्त्र कार्य हैं। मनोलब्धिवाले आत्माके जो पुद्गल मनरूपसे परिणत हुए हैं वे अन्धकार तिमिर आदि बाह्यन्द्रियोंके उपघातक कारणोंके रहते हुए भी गुणदोषविचार और स्मरण आदि व्यापारमें सहायक होते ही हैं। इसलिए मनका स्वतन्त्र अस्तित्व है। . ३२. बौद्ध मनका पृथक अस्तित्व न मानकर उसे विज्ञानरूप कहते हैं। "छहों ज्ञानोंकी उत्पत्तिका जो समनन्तर अतीत अर्थात् उपादानभूत ज्ञानक्षण है वह मन है, अर्थात् पूर्वज्ञानको मन कहते हैं" यह उनका सिद्धान्त है। पर, उनके मतमें जब ज्ञान क्षणिक है तो जब वह वर्तमानक्षणमें ही पदार्थोंका बोध नहीं कर सकता तो पूर्वज्ञानकी तो बात ही क्या करनी । वर्तमान ज्ञान पूर्व और उत्तर विज्ञानोंसे जब कोई सम्बन्ध नहीं रखता तब वह गुणदोषविचार स्मरण आदि कैसे कर सकता है ? अनुस्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थका उसीको होता है न तो अन्यके द्वारा अनुभूतका और न अननुभूतका । क्षणिकपक्षमें स्मरण आदिका यह क्रम बन ही नहीं सकता। सन्तान अवस्तुभूत है अतः उसकी अपेक्षा स्मरणादिको संगति बैठाना भी उचित नहीं है। पूर्वज्ञानरूप मन जब वर्तमानकालमें अत्यन्त असत् हो जाता है तब वह गुणदोषविचार स्मरण आदि कार्यों को कैसे कर सकेगा ? यदि बीजरूप आलयविज्ञानको स्थायी मानते हैं तो क्षणिकत्वपक्षका लोप हो जाता है। यदि वह भी क्षणिक है; तो वह भी स्मरणादिका आलम्बन नहीं हो सकता। ६३३-३४. सांख्य मनको प्रधानका विकार मानते हैं। पर, जब प्रधान स्वयं अचेतन है तो उसके विकार भी अचेतन ही होंगे तब वह घटादिकी तरह गुणदोपविचार स्मरण आदि व्यापार नहीं कर सकेगा। मन विचाररूप क्रियाका करण होता है। तो वताइए कि इस क्रियाका कर्ता कौन होगा-प्रधान या पुरुष ? पुरुष तो निर्गुण है, अतः उसमें सत्त्वगुणके विकाररूप विचारस्मरण आदि नहीं हो सकते । प्रधान अचेतन है, अतः उसमें भी विचार स्मरण आदि चेतनव्यापार नहीं हो सकते। सत्त्व रज और तमकी साम्यावस्था रूप प्रधानसे महान् अहंकार आदि विषमावस्थारूप विकार यदि भिन्न उत्पन्न होते हैं, तो कार्य और कारणके अभेद माननेका सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। यदि अभिन्न हैं; तो केवल प्रधान ही अवशिष्ट रह जाता है उससे भिन्न कोई परिणाम नहीं बचता। अतः मन नहीं बन सकेगा। ६३५-३७. वीर्यान्तराय ज्ञानावरणक्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके द्वारा शरीरकोष्ठसे जो वायु बाहर निकाली जाती है उस उच्छ्वासको प्राण कहते हैं तथा जो वायु भीतर ली जाती है उस निःश्वासको अपान कहते हैं। ये 3 जीवनमें कारण होते हैं । भयके कारणोंसे तथा वन्नपात आदिसे मनका प्रतिघात और मदिरा आदिके द्वारा अभिभव देखा जाता है। हाथसे मुँह और नाकको बन्द करनेसे श्वासोच्छ्वासका प्रतिघात तथा कण्ठमें कफ आ जानेसे अभिभव देखा जाता है । अतः मूर्तिमान् द्रव्योंसे प्रतिघात और अभिभव होनेसे ये सब पौद्गलिक हैं। .६३८. श्वासोच्छ्वासरूपी कार्यसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे किसी यन्त्रमूर्तिकी चेष्टाएँ उसके प्रयोक्ताका अस्तित्व बताती हैं उसी तरह प्राणापानादि क्रियाएँ क्रियावान् आत्माकी सिद्धि करती हैं। ये क्रियाएँ बिना कारणके भी नहीं होतीं; क्योंकि नियमपूर्वक देखी जाती हैं । विज्ञान आदिके द्वारा भी नहीं हो सकतीं; क्योंकि विज्ञानादि अमूर्त हैं, अतः उनमें प्रेरणाशक्ति नहीं हो सकती । अचेतन होनेके कारण रूपस्कन्धसे भी ये क्रियाएँ नहीं हो सकती। यदि सभी पदार्थोंको निरीहक मानकर क्रियाका लोप किया जाता है तो फिर पदार्थों की देशान्तरप्राप्ति आदि नहीं हो सकेगी। "वायुधातुसे देशान्तरमें उत्पन्न हो जाना ही क्रिया है,
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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