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________________ ६८२ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५२० मुख्य क्रिया नहीं है, 'पदार्थोंकी उत्पत्तिको ही क्रिया कहते हैं। यह सिद्धान्त है" यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब वायुधातु भी निष्क्रिय है तो वह अन्य पदार्थोंकी देशान्तरमें उत्पत्ति कैसे करा सकेगी ? क्षणिक होनेसे क्रियाका निषेध करना उचित नहीं है क्योंकि क्षणिकवाद प्रमाणविरुद्ध है। ३९. प्रश्न-'शरीरवाङ्मनःप्राणापाना' यहाँ शरीर आदिको प्राणीका अंग होनेसे द्वन्द्व समासमें एकवचन होना चाहिए ? उत्तर-जहाँ अंगअंगिभाव होता है वहाँ एकचन नहीं होता । प्राणीके अंगोंमें ही जहाँ द्वन्द्व समास होता है वहीं एकवचन होता है । यहाँ शरीर अंगी है तथा वचन मन आदि अंग । अथवा वचन आदि अंग भी नहीं हैं क्योंकि ये दाँत आदिकी तरह अनवस्थित हैं। चूँकि समाहारविषयक द्वन्द्व समासमें एकवद्भाव होता है, और समाहार एक प्राणाक अगाम ही होता है, किन्तु यहाँ शरीर वचन मन आदि नाना प्राणियोंके विवक्षित हैं। ४०. पुद्गल शब्दका अर्थात् अर्थ है पूरण गलनवाला पदार्थ या जो पुरुषके द्वारा कर्म और नोकर्मके रूपसे ग्रहण किया जाता है। ४१. उपग्रह शब्द भावसाधन है, अतः अनुक्त कर्तामें 'पुद्गलानाम् यहाँपर षष्ठी है। तात्पर्य यह कि शरीर आदि परिणामों के द्वारा पुद्गल आत्माके उपकारक हैं । कर्ममलीमस आत्मा सक्रिय हैं, अतः वे शरीरादिकृत उपकारोंको बन्धपूर्वक स्वीकार करते हैं, उनका अनुभव क हैं। यदि आत्माको सर्वथा निष्क्रिय या अत्यन्त शुद्ध माना जाय तो शरीर आदिसे बन्ध नहीं हो सकता और उपकारानुभव भी नहीं होगा, क्रियाका कारण न होनेसे संसार नहीं बनेगा और न मोक्ष ही। अन्य पुद्गलकृत उपकार सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ १-४. जब आत्मासे वद्ध सातावेदनीय कर्म द्रव्यादि बाह्य कारणोंसे परिपाकको प्राप्त होता है तब जो आत्माको प्रीति या प्रसन्नता होती है उसे सुख कहते हैं। इसी तरह असातावेदनीय कर्मके उदयसे जो आत्माके संक्लेशरूप परिणाम होते हैं उन्हें दुःख कहते हैं। भवस्थितिमें कारण आयुकर्मके उदयसे जीवके श्वासोच्छ्वासका चालू रहना, उसका उच्छेद न होना जीवित है और उच्छेद हो जाना मरण है। ६५-८. सारे प्रयत्न सुखके लिए हैं अतः सुखका ग्रहण सर्वप्रथम किया है और उसके प्रतिपक्षी दुःखका उसके बाद । जीवित प्राणीको ये दोनों होते हैं अतः उसके बाद जीवित और आयक्षय : निमित्तसे होनेवाला मरण अन्तमें होता है अतः मरणका ग्रहण अन्तमें किया है। ९. यद्यपि उपग्रहका प्रकरण है फिर भी इस सूत्रमें उपग्रहका ग्रहण पुद्गलोंके स्वोपकार को भी सूचित करता है । जैसे धर्म-अधर्म आदि द्रव्य दूसरोंका ही उपकार करते हैं उस तरह पुद्गल नहीं । पुद्गलोंका स्वोपग्रह भी है । जैसे काँसेको भस्मसे, जलको कतकफलसे साफ किया जाता है आदि । १०-११. साधारणतया मरण किसीको प्रिय नहीं है तो भी व्याधि पीडा शोकादिसे व्याकुल प्राणीको मरण भी प्रिय होता है अतः उसे उपकार श्रेणी में ले लिया है। फिर यहाँ उपकार शब्द से इष्ट पदार्थ नहीं लिया गया है किन्तु पुगलों के द्वारा होनेवाले समस्त कार्य लिये गये हैं। दुःख भी अनिष्ट है, पर पुद्गलकृत प्रयोजन होनेसे उसका निर्देश किया है। १२. 'शरीरवाङ्मनः' तथा 'सुख-दुःख' इन दोनोंको यदि एक सूत्र बनाते तो यह सन्देह होता कि 'शरीरादि चारके क्रमशः सुख-दुःख आदि चार फल है। इस अनिष्ट आशंका. की निवृत्तिके लिए पृथक सूत्र बनाये हैं। फिर सुख-दुःख आदिका सम्बन्ध जीवोपकारोंसे भी जुड़ता है, अतः पृथक पृथक सूत्र ही बनाया है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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