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________________ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।१९ यह विचारना है कि परमाणुमात्र मन जब आत्मा और इन्द्रियसे सम्बद्ध होकर ज्ञानादिको उत्पत्तिमें व्यापार करता है तब वह आत्मा और इन्द्रियसे सर्वात्मना सम्बद्ध होता है या एक देश से ? सर्वात्मना सम्बद्ध नहीं बन सकता; क्योंकि अणुरूप मन या तो इन्द्रियसे सर्वात्मना सम्बद्ध हो सकता है या फिर आत्मासे ही, दोनोंके साथ पूर्णरूपसे युगपत् सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि एक देशसे; तो मन के प्रदेशभेद मानना होगा, पर यह अनिष्ट है क्योंकि मनको परमाणुरूप माना गया है। यदि आत्मा मनसे सर्वात्मना सम्बन्ध करता है तो या तो आस्माकी तरह मनको व्यापक मानना होगा या मनकी तरह आत्माको अणुरूप। यदि आता एकदेशसे मनके साथ संयुक्त होता है तो आत्माके प्रदेश मानने होंगे। ऐसी दशामें आत्मा मन इन्द्रिय और पदार्थ, आत्मा मन और पदार्थ तथा आत्मा और मन इन चार तीन और दोके सन्निकर्षसे आत्माके कुछ प्रदेश ज्ञानवाले होंगे तथा कुछ प्रदेश ज्ञानादिरहित । जिन प्रदेशों में ज्ञानादि नहीं होंगे, उनकी आत्मरूपता निश्चित नहीं हो सकनेके कारण आत्मा सर्वगत नहीं रह सकेगा। इसी तरह यदि मन इन्द्रियोंके साथ सर्वात्मना सम्बद्ध होता है तो या तो भनकी तरह इन्द्रियाँ अणुरूप हो जायँगी या फिर इन्द्रियों की तरह मन अणुरूपता छोड़कर कुछ बड़ा हो जायगा। एक देशसे सम्बन्ध माननेपर मन परमाणुरूप नहीं रह पायगा, उसके अनेक पदेश हो जायेंगे। फिर, आपके मतमें गुण और गुणीमें भेद स्वीकार किया गया है तथा मन नित्य माना गया है अतः जब उसका संयोग और विभागरूपमे परिणमन ही नहीं हो सकता, तब न तो आत्मासे संयोग हो सकेगा और न इन्द्रियोंसे ही। यदि मनका संयोग और विभाग रूपसे परिणमन होता है तो नित्यता नहीं रहती। जब मन अचेतन है तो उसे 'इस आत्मा या इन्द्रियसे संयुक्त होना चाहिए इससे नहीं' यह विवेक नहीं हो सकेगा, इसलिए प्रतिनियत आत्मासे उसका संयोग नहीं बन सकेगा। कर्मका दृष्टान्त तो उचित नहीं है क्योंकि कर्भ पुरुपके परि. णामोंसे अनुरंजित होनेके कारण - कथञ्चित् चेतन है, हाँ पुद्गल द्रव्यकी अधिसे हो वह अचेतन है। मन परमाणुरूप है, अतः चक्षु आदिका जो प्रदेश उससे संयुक्त होगा उसीसे अर्थवोध हो सकेगा अन्य से नहीं पर समस्त चक्षुके द्वारा रूपज्ञान देखा जाता है अतः मन परमाणुरूप नहीं है । अणु मनको आशुसंचारी मानकर पूरी चक्षु आदिसे सम्बन्ध मानना उचित नहीं है, क्यों कि अचेतन मनके बुद्धिपूर्वक क्रिया और व्याप्ति नहीं हो सकती। अष्टकी प्ररणा : मनका इष्ट देशमें आशुभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियावान् पुरुपके द्वारा प्ररित होकर ही अलातचक्र आदि शीघ्र गतिसे सर्वत्र गोलाकारमें उपलब्ध होता है, परन्तु अदृष्ट नामक गुण तो स्वयं क्रियारहित है, वह कैसे अन्यत्र क्रिया करा सकेगा ? २७-२९ मन और आत्माका अनादि सम्बन्ध माननः उचित नहीं है। क्योंकि मन और आत्माका संयोग सम्बन्ध है। आपके मतसे तो अप्राप्तिपूर्वक प्राप्तिको संयोग कहते हैं। अतः इनका अनादिसम्बन्ध नहीं बन सकता। जैन दृष्टिसे तो मन भायोपशमिक है, अतः उसकी अनादिता हो ही नहीं सकती। यदि मन अनादिसम्बन्धी होता तो उसका परित्याग नहीं होना चाहिए था। जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध होनेपर भी कर्मका परित्याग इसलिए हो जाता है कि कर्म बन्धसन्ततिकी दृष्टिसे अनादि होकर भी चूंकि मिथ्यादर्शन आदि कारणोंसे उस उस समयमें बँधते रहते हैं, सादिबन्धी भी है-अतः जब सम्यग्दर्शन आदि रूपसे परिणमन होता है तब उनका सम्बन्ध छूट जाता है, पर मनमें ऐसी बात नहीं है। ६३०-३१. प्रश्न-मन इन्द्रियोंका सहकारी कारण है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ इष्ट-अनिष्ट विषयोंमें प्रवृत्त होती हैं तब मनके सन्निधानसे ही वे सुख दुःखादिका अनुभव करती हैं। इसके सिवाय मनका अन्य व्यापार नहीं है। उत्तर-वस्तुतः गरम लोहपिण्डकी तरह आत्मा का ही इन्द्रियरूपसे परिणमन हुआ है, अतः चेतनरूप होनेसे इन्द्रियाँ स्वयं सुख-दुःखका वेदन
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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