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________________ ५।१९ ] पाँचवाँ अध्याय ६७९ और शब्द से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाते हैं अतः नये नये शब्द उत्पन्न होकर उनका ग्रहण होता है । जहाँ वेगवान् द्रव्यका अभिघात होता है वहाँ नये शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती । जो शब्दका अवरोध जैसा मालूम होता है, वस्तुतः वह अवरोध नहीं है किन्तु अन्य स्पर्श वान द्रव्यका अभिघात होनेसे एकही दिशा में शब्द उत्पन्न होनेसे अवरोध जैसा लगता है । अतः शब्द अमूर्त हो है । समाधान - ये दोष नहीं हैं । श्रोत्रको आकाशमय कहना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्त आकाश कार्यान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिसे रहित है । अदृटकी सहायताके सम्बन्ध में यह विचारना है कि यह अदृष्ट आकाशका संस्कार करता है या आत्माका अथवा शरीर के एक देशका ? आकाशमें संस्कार तो कर नहीं सकता; क्योंकि वह अमूर्त है, अन्य द्रव्यका गुण है और आकाशसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । शरीर से अत्यन्त भिन्न नित्य और निरंश आत्मामें संस्कार उत्पन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें संस्कारसे उत्पन्न फल नहीं आ सकता । इसी तरह शरीरके एक देशमें भी उससे संस्कार नहीं आ सकता क्योंकि अट अन्य द्रव्यका गुण है और उसका शरीरखे कोई सम्बन्ध नहीं है । मूर्तिमान तैल आदि से श्रोत्र अतिशय देखा जाता है तथा मूर्तिमान् कील आदिसे उसका विनाश देखा जाता है अतः श्रोत्रको मूर्त मानना ही समुचित है । 'स्पर्शवान द्रव्यके अभिघातसे शब्दान्तरका उत्पन्न न होना हो' यह सूचित करता है कि शब्द मूर्त है, क्योंकि कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्त के द्वारा अभिघातको प्राप्त नहीं हो सकता । इसीलिए मुख्य रूपसे शब्दका अवरोध भी बन जाता है । 1 जिस प्रकार सूर्य के प्रकाशसे अभिभूत होनेवाले तारा आदि मूर्तिक हैं उसी तरह सिंहकी दहाड़ हाथीकी चिंघाड़ और भेरी आदि के घोषसे पक्षी आदिके मन्द शब्दों का भी अभिभव हासे वे मूर्त हैं । कांसे के बर्तन आदि में पड़े हुए शब्द शब्दान्तरको उत्पन्न करते हैं । पर्वतकी गुफाओं आदि से टकराकर प्रतिध्वनि होती है। मूर्तिक मदिरासे इन्द्रियज्ञानका जो अभिभव देखा जाता है वह भो मूर्त से मूर्त का ही अभिभव है क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान इन्द्रियादि पुलों के अधीन होने से पौगलिक हैं, अन्यथा आकाशकी तरह उसका अभिभव नहीं हो सकता था । इस तरह उक्त हेतुओं से शब्द पुगलकी पर्याय सिद्ध होता है । . ९ २०. मन दो प्रकारका है एक भावमन और दूसरा द्रव्यमन । भावमन लब्धि और उपयोगरूप हैं । यह पुद्गलनिमित्तक और पुद्गलावलम्बन होनेसे पौगलिक है । गुण-दोषविचार और स्मरणादिरूप व्यापार में तत्पर आत्माके ज्ञानावरण वीर्यान्तरायके क्षयोपशमको आलम्बन बननेवाले या सहायक जो पुद्गल शक्तिविशेषसे युक्त होकर मन रूप से परिणत होते हैं वे द्रव्यमन हैं । यह पौगलिक है ही । ३२१ - २३. जैसे वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षयोपशमकी अपेक्षासे आत्माके ही प्रदेश चक्षु आदि इन्द्रियरूपसे परिणमन करते हैं अतः आत्मासे इन्द्रिय भिन्न नहीं है और इन्द्रियके नष्ट हो जानेपर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अतः इन्द्रिय आत्मासे भिन्न है उसी तरह आत्माका ही मन रूपसे परिणमन होनेके कारण मन आत्मासे अभिन्न है और मनकी निवृत्ति हो जानेपर भी आत्माकी निवृत्ति नहीं होती, अतः भिन्न है । मन कोई स्थायी पदार्थ नहीं है, क्योंकि जो पुद्गल मन रूपसे परिणत हुए थे उनकी मनरूपता गुण दोष-विचार और स्मरणादि कार्य कर लेनेपर अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते । वैसे द्रव्यदृष्टिसे मन भी स्थायी है और पर्याय दृष्टिसे अस्थायी । ९२४ - २६. वैशेषिकका मत है कि मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है, वह अणुरूप है और प्रत्येक आत्मासे एक एक सम्बद्ध है । कहा भी है कि “एक साथ आत्माके अनेक प्रयत्न नहीं होते और न एक साथ सभी इन्द्रियज्ञानोंकी उत्पत्ति ही देखी जाती है अतः क्रमका नियामक एक मन है ।" यह मत ठीक नहीं है, क्यों कि परमाणुमात्र होनेसे उसमें सामर्थ्यका अभाव है ।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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