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________________ ५।१७] पाँचवाँ अध्याय ६७३ दोनों ही कार्य करते हैं यह अर्थबोध होता। इससे किसी एककी व्यर्थता नहीं हो सकती क्योंकि एकही कार्य अनेक कारणोंसे उत्पन्न हुआ देखा जाता है। अतः इस अनिष्ट प्रसंगके निवारणके लिए 'उपग्रहौ' ऐसा द्विवचन दिया है । तात्पर्य यह कि स्वयं गतिपरिणत जीव और पुद्गलोंके गति रूप उपग्रहके लिए धर्मद्रव्य और स्वयं स्थिति रूपसे परिणत नीव और पुद्गलोंकी स्थितिके लिए अधर्म द्रव्यकी आवश्यकता है। समस्त लोकाकाशमें इन प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिए इन्हें सर्वगत मानना अत्यावश्यक है। १६-१९. प्रश्न-जब 'उपकार से ही काम चल जाता है तब 'उपग्रहो' वचन निरर्थक है। 'धर्माधर्मयोरुपकारः' इतना लघुसूत्र बना देना चाहिए। जैसे यष्टि-लाठी चलते हए अन्धेकी उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादिको भी उपकारक कहनेसे उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। यदि प्रेरक कर्तृत्व इष्ट होता तो स्पष्ट ही 'गतिस्थिती धर्माधर्मकृते' ऐसा सूत्र बना देते । अतः उपग्रह वचन निरर्थक है। उत्तर-'आत्माके गतिपरिणाममें निमित्त होना धर्म द्रव्यका उपकार है तथा पुद्गलोंकी स्थितिमें निमित्त होना अधर्म द्रव्यका उपकार है। इस अनिष्ट यथाक्रम प्रतीतिकी निवृत्तिके लिए 'उपग्रह' वचन स्पष्टप्रतीतिके लिए दिया गया है। व्याख्यानसे विशेष प्रतिपत्ति करनेमें निरर्थक गौरव होता, अतः सरलतासे इष्ट अर्थबोधके लिए 'उपग्रहौ' पदका दे देना अच्छा ही हुआ। ६२०-२३. प्रश्न-आकाश सर्वगत है और उसमें सुषिरता भी है अतः गति और स्थिति म्प उपग्रह भी आकाशके ही मान लेने चाहिए ? उत्तर-आकाश धर्माधर्मादि सभीका आधार है। जैसे नगरके बने हुए मकानोंका नगर आधार है उसी तरह धर्मादि पाँच द्रव्योंका आकाश आधार है। जब आकाशका एक 'अवगाहदान' उपकार सुनिश्चित है तब उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते अन्यथा जल और अग्निके द्रवता और उपणता गुण पृथ्वीके भी मान लेना चाहिए। यदि आकाश ही गति और स्थितिमें उपकारक हो तो अलोकाकाशमें भी जीव पुदलोंकी गति और स्थिति होनी चाहिए। इस तरह लोक और अलोकका विभाग ही समाप्त हो जाता है। लोकसे भिन्न अलोक तो होना ही चाहिए, क्योंकि वह 'अब्राह्मण' की तरह नभ्युक्त सार्थक पद है। जिस प्रकार मछलीकी गति जलमें होती है, जलके अभावमें जमीनपर नहीं होती आकाश की मौजूदगी रहनेपर भी, उसी तरह आकाशके रहनेपर भी धर्माधर्मके होनेपर ही जीव और पुदलकी गति और स्थिति होती है। धर्म और अधर्म गति और स्थितिके साधारण कारण है अवकाशदानमें आकाशकी तरह । जैसे भूमि आदि आधारोंके विद्यमान रहनेपर भी अवगाहक साधारण कारण आकाश माना जाता है उसी तरह मछली आदिके लिए जल आदि बाह्य निमित्त रहेनपर भी साधारण कारण धर्म और अधर्म द्रव्य मानना ही चाहिए। ६२४. यदि एक द्रव्यका धर्म दूसरे द्रव्यमें मानकर अन्य द्रव्योंका लोप किया जाता है और इसी पद्धतिसे सर्व व्यापक आकाशको ही गति और स्थितिमें निमित्त मानकर धर्म और अधर्म द्रव्यका अभाव किया जाता है तो सभी मतवादियोंके यहाँ सिद्धान्तविरोध दूपण आयगा क्योंकि सभीने अनेक व्यापक द्रव्य माने हैं। वैशपिक आकाश काल दिशा और आत्मा इन चार द्रव्यों को विभु-व्यापक मानते हैं। उनके यहाँ 'यह इससे पूर्व या पश्चिममें है' यह दिशानिमित्तक व्यवहार और 'यह जेठा है यह लघु' यह कालनिमित्तक परापर व्यवहार आकाशसे ही हो जायगा; दिशा और कालके माननेकी आवश्यकता नहीं है। इसी तरह अनेक व्यापक आत्माएँ मानना निरर्थक है, उन्हें एक ही आत्मासे उपाधिभेदसे सब कार्य चल जायगा । अतः शास्त्रमें प्रतिनियत बुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वष प्रयत्न धर्म अधर्म और संस्कार आदि गुणोंका कारण तथा शास्त्र बलसे अनेक आत्माओंका मानना निरर्थक हो जायगा। सांख्य सत्त्व रज और
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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