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________________ ६७२ तत्त्वार्थवार्तिक- हिन्दी-सार [ ५।१७ घटती है और न बढ़ती हैं क्योंकि मुक्त अवस्था में संद्दार और विसर्पका कारण कर्म ही नहीं है | अतः मुक्त आत्माओंकी पुगलकी तरह एक प्रदेश आदि में वृत्ति नहीं मानी जा सकती। १०. प्रश्न - जिस देश में धर्म द्रव्य है उसी देश में अधर्म और आकाशादि, जो धर्म का आकार है वही अधर्म आदि द्रव्योंका, काल भी सबका एक जैसा ही है, स्पर्शन भी सभीका बराबर है, केवल ज्ञानीके ज्ञानके विषय भी सब समान रूपसे होते हैं, इसी तरह अरूपत्व द्रव्यत्व और ज्ञेयत्व आदिकी दृष्टि से कोई विशेषता न होनेसे धर्मादि द्रव्योंको एक ही मानना चाहिए ? उत्तर- जिस कारण आपने धर्मादि द्रव्यों में एकत्वका प्रश्न किया है उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है । जब वे भिन्न भिन्न हैं तभी तो उनमें अमुक दृष्टियों से heast सम्भावना की गई है । यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। जिस तरह रूप रस आदि में तुल्यदेशकालत्व आदि होनेपर भी अपने अपने विशिष्ट लक्षणके होनेसे अनेकता है उसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी लक्षणभेदसे अनेकता है । आगे उन्हीं लक्षणोंको कहते हैंगतिस्थित्युपग्रह धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७॥ गति और स्थिति क्रमशः धर्म और अधर्म के उपकार हैं । अथवा, प्रश्न - पुद्गलादिका एक प्रदेश आदिमें जो अवगाह बताया है वह तो समझ में आता है पर धर्म और अधर्म के जीवकी तरह असंख्यात प्रदेश होनेपर भी इनकी लोकव्यापिता निर्युक्तिक है, वह समझ में नहीं आती । उत्तर - जैसे जल मछलीके तैरनेमें उपकारक है, जलके अभाव में मछलीका तैरना सम्भव नहीं है उसी तरह जीव और पुद्गलोंकी स्वाभाविक और प्रायोगिक गति और स्थिति में धर्म और अधर्मं सहायक होते हैं। चूँकि समस्त लोकमें जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति होती है अतः उपकारक कारणों को भी सर्वगत ही होना चाहिए । १-३. बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे परिणमन करनेवाले द्रव्यको देशान्तर में प्राप्त करनेवाली पर्याय गति कहलाती है । स्वदेश से अप्रच्युतिको स्थिति कहते हैं । उपग्रह अर्थात्, अनुग्रह, द्रव्यों की शक्तिका आविर्भाव करने में कारण होना । ९४ - ९. 'गतिस्थित्युपग्रहौ' यहाँ अनेक बिग्रहों की संभावना होनेपर भी 'गतिस्थिता एव उपग्रहौ' यह समानाधिकरण वृत्ति समझनी चाहिए, तभी द्विवचनकी सार्थकता है । इनमें 'उपगृह्येते इति उपग्रहौ' इस तरह कर्मसाधनकृत सामानाधिकरण्य है । यदि बहुब्रीहि समास होता तो 'गतिस्थित्युपौ धर्माधर्मौ' ऐसा प्रयोग होता । यदि षष्ठी तत्पुरुष होता तो उत्तर पदार्थ की प्रधानता होने से 'गतिस्थित्युपग्रहः' ऐसा एकवचनान्त प्रयोग होना चाहिए था । १०. 'धर्माधर्मयोः' यह कर्तृनिर्देश है अर्थात् ये उपकार क्रियाके कर्त्ता हैं । $ ११-१३. प्रश्न – यदि उपकार शब्दको 'उपकरणमुपकारः' ऐसा भावसाधन माना जाता है तो 'धर्माधर्म योरुपग्रहौ' इस पद से सामानाधिकरण्य नहीं हो सकेगा; क्योंकि उपकार कर्तृस्थ क्रिया होनेसे धर्म अधर्म में रहेगी तथा उपगृह्यमाण गति और स्थिति जीव और पुद्गलमें रहते हैं । यदि कर्मसाधन मानते हैं तो 'उपगृहौ' की तरह 'उपकार' ऐसा द्विवचन प्रयोग होना चाहिए । उत्तर - जैसे 'साधोः कार्यं तपःश्रुते' यहाँ सामान्यकी अपेक्षा कार्यशब्दमें एकवचन का प्रयोग है, वह पीछे भी अपने उपात्त वचनको नहीं छोड़ता, उसी तरह उपकार शब्द भी सामान्यकी अपेक्षा उपात्त - एकवचन होनेसे अपने गृहीत वचनको नहीं छोड़ता । S १४-१५ अथवा, 'उपग्रहणमुपग्रहः' यह भावसाधन प्रयोग है, इसी तरह उपकार शब्द भी । तब यहाँ 'गति स्थित्यो रुप हौ' यह षष्ठीसमास मान लेना चाहिए। 'उपग्रहौ' में द्विवचन का प्रयोग यथाक्रम प्रतिपत्तिके लिए है । यदि एकवचन रहता तो जैसे एक पृथिवी अश्व आदिकी गति और स्थिति दोनोंमें उपकारक होती है उसी तरह धर्म और अधर्म दोनों गति और स्थिति
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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