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________________ ६७४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।१७ और तम ये तीन गुण मानते हैं। तीनों व्यापक हैं। यदि आकाशसे ही धर्माधर्मका कार्य लिया जाता है तो सत्त्व गुणोंसे ही प्रसाद और लाववकी तरह रजोगुणके शोष और ताप तथा तमो गुणके आवरण और सादन रूप कार्य हो जाने चाहिए। इस तरह शेष गुणोंका मानना निरर्थक है। इसीतरह सभी आत्माओंमें एक चैतन्यरूपता समान है अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त नहीं। बौद्ध रूप वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कन्ध मानते हैं। यदि एकमें ही अन्यके धर्म माने जाँय तो विज्ञानके बिना अन्य स्कन्धोंकी प्रतीति हो नहीं सकती अतः केवल एक विज्ञानस्कन्ध 'मानना चाहिए। उसीसे रूपादि स्कन्धोंके रूपण, अनुभवन, शब्दप्रयोग और संस्कार ये कार्य हो जायेंगे। इसी तरह शेपस्कन्धोंकी निवृत्ति होनेपर निरालम्बन विज्ञानकी भी स्थिति नहीं रह सकती। अतः उसका भी अभाव हो जानेसे सर्वशन्यता ही हाथ रह जायगी। अतः व्यापक होनेपर भी आकाशमें ही धर्म और अधर्मकी गति और स्थितिमें निमित्त होने रूप योग्यता नहीं मानो जा सकती। २५-२७. जिस प्रकार स्वयं गतिमें समर्थ लँगड़ेको चलते समय लाठी सहारा देती है अथवा जैसे स्वतः दर्शनसमर्थ नेत्र के लिए दीपक सहारा देता है, न तो लाठी गतिकी की है और न वह प्रेरणा देती है, दीपक भी असमर्थ के दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं करता । यदि असमर्थीको भी गति या दर्शनशक्तिके ये कर्ता हो तो मूञ्छित सुपुप्त और जान्यन्धोंका भी गति और दर्शन होना चाहिए । उसी तरह स्वयं गति और स्थितिमें परिणत जीव और पुलोंको धर्म और अधर्म गति और स्थितिम उपकारक होते हैं, प्रेरक नहीं. अतः एक साथ गति और स्थिति का प्रसंग नहीं होता और न गति और स्थितिका परस्पर प्रतिबन्ध ही। यदि ये कर्ता होत तो ही गतिके समय स्थिति और स्थितिके समय गतिका प्रसंग होकर परस्पर प्रतिवन्ध होता। कहीं-कहीं पर जल जैसे वाह्य कारण न रहनेपर भी प्रकृष्ट गति परिणाम होनसे धर्मद्रव्यके निमित्त मात्रसे गति देखी जाती है जैस पक्षीकी गति । इसी तरह अन्य द्रव्योंकी भी गति और स्थिति समझ लेनी चाहिए । पक्षियोंके गमनमें आकाशको निमित्त मानना उचित नहीं, क्योंकि आकाश का कार्य तो अवगाहदान है। २८. फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवाले बाहा प्रकाशकी सहायता लें ही। व्यात्र बिल्ली आदिको वाह्य प्रकाशकी आवश्यकता नहीं भी रहती। मनुष्य आदिमें स्वतः वैसी दर्शन शक्ति नहीं है अतः वाद्य आलोकः अपेक्षित होता है । जैसे यह कोई नियम नहीं है कि सभी चलनेवाले लाठीका महाग लेने ही हों। उसी तरह जीव और पुद्गलोंको सर्वत्र बाह्य कारणोंकी मदद के बिना भी केवल धर्म और अधर्म द्रव्यके उपग्रह से गति और और स्थिति होती रहती है। किन्हींको मात्र धर्माधमादिन और किन्हींको धमाधर्मादिके साथ अन्य वाह्य कारणांकी भी उपेक्षा होती है। २५-३१. धर्म और अधर्मकी अनुपलब्धि हानेम खरविपाणकी तरह अभाव नहीं किया जा सकता अन्यथा अपने तीर्थंकर पुण्य पाप परलोक आदि सभी पदार्थांका अभाव हो जायगा । अनुपलाध असिद्ध भी हैं क्यांकि भगवान अर्हन्त सर्वज्ञक द्वारा प्रणीत आगमस धर्म और अधर्म द्रव्यकी उपलब्धि होती ही है। अनुमानसे भी गति और स्थितिके साधारण निमित्तके रूपमें उनकी उपलब्धि होती है । जिस कारण धर्म और अधर्म अप्रत्यक्ष-अतीन्द्रिय हैं इसीलिए विवाद है कि इनकी खर विपाणकी तरह अमत्त्व होनेसे अनुपलब्धि है अथवा परमाण आकाश आदिकी तरह अतीन्द्रिय हानसे अनुपलब्धि है ? जिस कारण विवाद है उसीसे अभावका निश्चय नहीं किया जा सकता। ३२-३४. अकेले मृत्पिडम घड़ा उत्पन्न नहीं होता, उसके लिए कुम्हार चक्र-चीवर
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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