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________________ ५/१६ ] पाँचवाँ अध्याय ६७१ ३१-३ यद्यपि आत्मा स्वभावसे अमूर्त है पर अनादिकालीन कर्मसम्बन्धके कारण कति मूर्तपनेको धारण किये हुए है। लोकाकाश के बराबर इसके प्रदेश हैं, फिर भी कार्मणशरीरके कारण ग्रहण किये गये शरीर में ही स्थित रहता है। सूखे चमड़े की तरह प्रदेशों के संकोच को संहार और जलमें तेलकी तरह प्रदेशों के फैलावको विसर्प कहते हैं । इन कारणों से जीव असंख्येयभाग आदि में समा जाता है । जैसे कि निरावरण आकाशमें रखे हुए दीपकका प्रकाश बहुदेशव्यापी होने पर भी जब वह सकोरा या अन्य किसी आवरणसे ढँक दिया जाता है तो में ही सीमित हो जाता है। संहार और विसर्प स्वभाव होने पर आत्मामें दीपककी तरह अनित्यत्वका प्रसंग देना जैनों के लिए दूपण नहीं है, क्योंकि उन्हें यह इष्ट है कि आत्मा कार्मणशरीर जन्य प्रदेशसंहार और विसर्परूप पर्यायकी दृष्टिसे अनित्य है ही । अथवा संकोच विकास होने पर भी दीपकरूपी द्रव्यसामान्यकी दृष्टिसे नित्य है । अतः वह बाधाकारी दृष्टान्त नहीं बन सकता । १४ -७ प्रश्न- प्रदीपादिकी तरह संहार और विसर्प होनेसे संसारी आत्माके घटादिकी तरह छेदन भेदन और प्रदेशविशरण होना चाहिए । इस तरह शून्यताका प्रसंग प्राप्त होता है । उत्तर - बन्धकी दृष्टिसे कार्मण शरीर के साथ एकत्व होने पर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभावको नहीं छोड़ता । लक्षण भेदसे उनमें भेद है ही । फिर इस विषय में भी अनेकान्त ही है । अनादि पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टिसे न तो प्रदेशों का संहार या विसर्प ही होता है और न उसमें सावयवपना ही है । हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म वादर शरीरको उत्पन्न करनेवाले निर्माण नामके उदय रूप पर्यायकी विवक्षासे स्यात प्रदेशसंहार और विसर्प है, इसी तरह अनादि कर्मबन्ध रूपो पर्यायार्थ देश से सावयवपना भी है। किंच, जिस पदार्थ के अवयव कारणपूर्वक होते हैं अर्थात् कारणों से उत्पन्न होते हैं उसके अवयवविशरणसे विनाश हो सकता है जैसे कि अनेक तन्तुओंसे बने हुए कपड़ेका तन्तुविशरणसे विनाश होता है । पर आत्मा के प्रदेश अन्यद्रव्यके संघातसे उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे अकारणपूर्वक हैं। जिस प्रकार अणुका प्रदेश अकारणपूर्वक है अतः वह अवयवविश्लेषसे अनित्यताको प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्य परमाणुके संयोगसे ही उसमें अनित्यता आती है उसी प्रकार आत्मप्रदेश अन्यद्रव्यसंघात - पूर्वक नहीं हैं अतः प्रदेशवान् होनेसे सावयव होकर भी आत्मा अवयवविश्लेषसे अनित्यताको नहीं प्राप्त होता, केवल गति आदि पर्यायोंकी दृष्टिसे ही अनित्य हो सकता है । इसीलिए आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में सुखादिगुणोंकी विशेषाभिव्यक्ति नहीं देखी जाती । अन्यद्रव्यसंघातसे सावयव बने हुए पटादिद्रव्यों में ही प्रतिप्रदेश रूपादिगुणोंकी विशेषता देखी जाती है । यदि आत्माके प्रदेश भी अन्यद्रव्य संघात पूर्वक होते तो प्रतिप्रदेश सुखादिगुणोंकी विशेषता रहती और इस तरह एक ही शरीर में बहुत आत्माओंका प्रसंग प्राप्त होता । जैसे परमाणुमें एक समय में एक जातीय ही शुक्ल आदि गुण होता है उसी तरह आत्मामें भी एकजातीय ही सुखादि एक कालमें हो सकते हैं। अतः यह आशंका भी निर्मूल हो जाती है कि- “सरदी और गरमीका असर चमड़े पर पड़ता है आकाश पर नहीं । यदि आत्मा चमड़ेकी तरह है तो अनित्य हो जायगा और आकाश की तरह है। समस्त पुण्य पापादि क्रियाएँ निष्फल हो जायगी ।" क्योंकि यह कहा जा चुका है कि- द्रव्यदृष्टिसे नित्य होने पर भी आत्मा पर्यायदृष्टि से अनित्य है । ६८- ९. चूँकि संसारी आत्मा कार्मणशरीर के अनुसार छोटे बड़े स्थूल शरीरको ग्रहण करता है और सबसे छोटा शरीर अंगुलके असंख्येय भाग प्रमाण है अतः आत्माका पुलकी तरह एक प्रदेश आदि में अवगाह नहीं हो सकता । यद्यपि मुक्त जीवोंके वर्तमान शरीर नहीं है. फिर भी उनके आत्मप्रदेशोंकी रचना अन्तिमशरीर से कुछ कम आकार में रह जाती है, न तो
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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