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________________ ६७० तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार [५।१५-१६ पड़ेगा ? उत्तर-यह पहिले कहा जा चुका है कि प्रचयविशेप, सूक्ष्मपरिणमन और आकाशको अवगाहनशक्तिके कारण अनेकका एकत्र अवस्थान हो जाता है। जैसे एक ही कमरेमें सैकड़ों दीपप्रकाश रह जाते हैं और एक प्रदेशमें रहनेसे उनकी पृथक सत्ता भी नष्ट नहीं होती उसी तरह एक प्रदेशमें अनन्त भी स्कन्ध अतिसूक्ष्म परिणमनके कारण स्वभावमें सांकर्य हुए बिना ही रह सकते हैं। जैसे अग्निका स्वभाव जलानेका और तृणादिका जलनेका है और उनके इन स्वभावों में कोई तर्क नहीं चलता उसी तरह मूर्तिमान होनेपर भी अनेक स्कन्धोंका एक आकाशप्रदेशमें अवगाहनस्वभाव होनेके कारण अवस्थान हो जाता है। सर्वज्ञप्रणीत आगममें जिस प्रकार एक निगोद शरीरमें-साधारण आहार जीवन मरण और श्वासाचास हानेसे साधारण संज्ञावाले अनन्त निगोदियोंका अवस्थान बताया है उसी तरह यह भी बताया है कि "अनन्तानन्त विविध सूक्ष्म और वादर पुद्गलकायोंसे यह लोक सर्वतः ठसाठस भरा हुआ है ।" अतः आगम प्रामाण्यसे भी उनका अवस्थान समझ लेना चाहिए । असंख्येयभागादिपु जीवानाम् ॥ १५ ॥ जीवोंका अवगाह असंख्येय एक भाग आदिमें है। १-३. असंख्येय भागोंका एक भाग असंख्येयभाग । लोकाकाशके असंख्येय एक भाग आदिमें जीवोंका अवगाह है। 'लोकाकाशेऽवगाह' सूत्रसे लोकाकाशशब्दका प्रकरणवश अर्थाधीन विभक्तिपरिणमन करके 'लोकाकाशस्य' के रूपमें अनुवर्तन कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि-लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जाँय । एक असंख्येय गमें भी एक जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और संपूर्ण लोक जीवोंका अवगाह समझना चाहिए । नाना जीवोंका अवगाहक्षेत्र तो सर्वलोक है। ४. प्रश्न-जब एक असंख्येय भागमें भी असंख्यात प्रदेश हैं और दो तीन चार आदि भागों में भी असंख्यात प्रदेश हैं तब जीवोंके अवगाहमें कोई विशेपता नहीं होनी चाहिए ? उत्तर-अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयके भी असंख्येय विकल्प हैं। अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय भेद हैं, अतः जीवोंके अवगाहमें भी भेद हो जाता है। ५. प्रश्न-जव लोकके एक असंख्येय भागमें एक जीव रहता है और द्रव्यप्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह लोकाकाशमें कैसे समा सकती है ? उत्तर-जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकारके हैं । वादर जीव सप्रतिघातशरीरी होते हैं पर सूक्ष्मजीवोंका सूक्ष्मपरिणमन होनेके कारण सशरीरी होने पर भी न तो वादरोंसे प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतीयातशरीरी हैं। इसलिए जहाँ एक सूक्ष्मनिगोद जीव रहता है वहीं अनन्तानन्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्य आदिके शरीरों में भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मृर्छन जीव रहते हैं । यदि सभी जीव बोदर ही होते तो अवगाहमें गड़बड़ पड़ सकती थी। सशरीर आत्मा भी अप्रतिघाती है यह बात तो अनुभवसिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वनके किवाड़ लगे हों और वनलेप भी जिसमें किया गया हो, मरकर जीव कार्मणशरीर के साथ निकल जाता है। यह कार्मण शरीर मूर्तिमान् ज्ञानावरणादि कर्मोंका पिंड है। तैजस शरोर भी इसके साथ सदा रहता है। मरणकालमें इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वनमय कमरे से निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदियाजी वांका शरीर भी अप्रतिघाती समझना चाहिए। प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ प्रदेशोंके संकोच और विस्तारके कारण लोकाकाशके समान असंख्यात प्रदेशवाला भी एक जीव प्रदीपकी तरह असंख्येय एक भाग आदिमें रह जाता है।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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