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________________ ५।१३-१४ ] पाँचवाँ अध्याय न तो अन्य द्रव्योंको अलोक कहा जायगा और न 'छह द्रव्योंका समूह लोक' इस सिद्धान्तका विरोध ही होगा, क्योंकि रूढिमें क्रिया व्युत्पत्तिका निमित्तमात्र होती है। जैसे 'गच्छतीति गौः ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर भी न तो सभी चलनेवाले गौ बन जाते हैं और न बैठी हुई गाय अगौ।' इसी तरह लोक शब्दकी उक्त व्युत्पत्ति करनेपर भी धर्मादि द्रव्योंका लोकत्व नष्ट नहीं होता। आत्मा स्वयं अपने स्वरूपका लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ जैसे वाह्य पदार्थोंका लोकन करता है उसी तरह स्वस्वरूपका भी। यदि स्वस्वरूपको न लोके तो सर्वज्ञ कैसा ? स्वस्वरूपका अजानकार धर्मादिकी तरह बाह्य पदार्थोंका ज्ञाता भी कैसे बन सकता है ? १५-१६. प्रश्न-'जो देखा जाय वह लोक' ऐसी व्युत्पत्ति करनेपर आलोकको भी, चूँ कि बह सर्वज्ञके द्वारा देखा जाता है, लोक कहना चाहिए। यदि सर्वज्ञ उसे नहीं देखता तो सर्वज्ञ कैसा ? उत्तर-लोकसंज्ञा रूढ़ है, व्युत्पत्ति तो निमित्तमात्र है। अथवा, 'जहाँ बैठकर जिसे देखता हो वह लोक' यह व्युत्पत्ति करनेमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि अलोकमें बैठकर तो केवली अलोकको देखता नहीं है । अतः उभय विशेषण देने में कोई विरोध नहीं आता । १७-१८. लोकके आकाशको लोकाकाश कहते हैं, जैसे जलके आशय-स्थानको जलाशय । अथवा, 'धर्म अधर्म पुद्गल काल और जीव जहाँ देखे जाँय वह लोक' इस व्युत्पत्तिमें अधिकरणार्थक घन् प्रत्यय होनेपर 'लोक' शब्द बन जाता है । लोक ही आकाश वह लोकाकाश। इस तरह आकाश दो भागों में बँट जाता है-लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश धर्म अधर्म आदि द्रव्योंकी तरह असंख्यात प्रदेशी है । उसके बाहर अनन्त अलोकाकाश है। धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ ६१-३. धर्म और अधर्म दव्य तिलों में तैलकी तरह समस्त लोकाकाशको व्याप्त करते हैं । कृत्स्न शब्द निरवशेष-संपूर्ण व्याप्तिका सूचक है । जबकि मूर्त्तिमान् भी जल भस्म और रेत आदि एक जगह बिना विरोधके रह जाते हैं तब इन अमूर्त द्रव्योंकी एकत्र स्थितिमें कोई विरोध नहीं है । जिन स्थूल स्कन्धोंका आदिमान सम्बन्ध होता है उनमें कदाचित् परस्पर प्रदेशविरोध हो भी पर धर्म और अधर्म आदि तो अनादि सम्बन्धी हैं, इनमें पूर्वापरभाव नहीं है और ये अमूर्त हैं । अतः इनका प्रदेशविरोध नहीं है। एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥ पुद्गलोंका अवगाह एकप्रदेश आदि असंख्यात प्रदेशोंमें है। ६१-२. 'एकप्रदेशादिषु' पदमें 'एकश्चासौ प्रदेशः' ऐसा अवयवसे विग्रह करके 'अखण्ड एकप्रदेश'को-समुदायको समासार्थ समझना चाहिए । जैसे 'सोमशर्मादि' में सोमशर्मा भी गृहीत होता है उसी तरह यहाँ एक प्रदेशका भी ग्रहण करना चाहिए । अथवा, प्रदेश शब्दको अनुवृत्ति करके 'सर्वादि'की तरह समुदायको समासार्थ मानना चाहिए। भाज्य अर्थात विकल्प्य । यथा, एक परमाणुका एक ही आकाशप्रदेशमें अवगाह होता है, दो परमाणु यदि वद्ध हैं तो एक प्रदेशमें यदि अबद्ध हैं तो दो प्रदेशोंमें, तथा तीन का बद्ध और अबद्ध अवस्थामें एक दो और तीन प्रदेशोंमें अवगाह होता है । इसी तरह बन्धविशेषसे संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोंका लोकाकाशके एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशोंमें अवगाह समझना चाहिए। ३-६. प्रश्न-धर्मादि द्रव्य चूँकि अमूर्त हैं अतः उनका एकप्रदेश में अवगाह हो सकता है पर मूर्तिमान अनेक पुद्गलोंका एक प्रदेशमें अवस्थान कैसे हो सकता है ? यदि होगा तो या तो प्रदेशोंका भी प्रदेशविभाग करना होगा या फिर अवगाही पुद्गलों में एकत्व मानना
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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