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________________ [ १ ६५४ तत्त्वार्थवार्तिक-हिन्दी-सार होता है उसी तरह धर्मादि द्रव्य अनादि-पारिणामिक प्रदेशोंवाले होनेसे काय हैं। काय शब्दका ग्रहण ही प्रदेश या अवयवोंकी बहुतायत सूचित करनेके लिए है। धर्मादिकमें मुख्य रूपसे प्रदेश न रहनेपर भी एक परमाणुके द्वारा रोके गये आकाश प्रदेशके नापसे बुद्धिके द्वारा उनमें असंख्येय आदि प्रदेश स्वीकार किये जाते हैं। ६-१४. प्रश्न-'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' इस सूत्रसे ही बहुप्रदेशीपना सिद्ध है फिर काय ग्रहण करना निरर्थक है। प्रदेशोंकी संख्याके निश्चयके लिए भी इसकी उपयोगिता नहीं है क्योंकि इससे तो प्रदेशप्रचयमात्रकी ही प्रतीति होती है। 'लोकाकाशेऽवगाहः' के बाद 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' कहनेसे द्रव्योंके प्रदेशोंके परिमाणका निश्चय हो जाता है। काय ग्रहणके बिना अप्रदेशी एकद्रव्यपनेका प्रसंग भी नहीं आ सकता; क्योंकि 'असंख्ययाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' सूत्रसे ही बहुप्रदेशित्व सूचित हो जाता है। पंचास्तिकायके आर्ष उपदेशके अनुवादके लिए काय शब्दका ग्रहण निरर्थक है क्योंकि 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्यादि सूत्रसे ही वह कार्य हो जाता है। 'काय-बहुप्रदेशित्वरूप स्वभाव उनका सदा रहता है छूटता नहीं' इस बातके द्योतनके लिए भी काय शब्दका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि 'नित्य और अवस्थित' कथनसे ही स्वभावका अपरित्याग सिद्ध हो जाता है। ६१५-१६. उत्तर-कायशव्दके ग्रहणसे पाँचों ही अस्तिकायों में प्रदेशबहुत्वकी सिद्धि होनेपर ही 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम्' यह सूत्र प्रदेशोंकी असंख्येयताका अवधारण कर सकता है कि असंख्येय ही प्रदेश हैं न संख्येय और न अनन्त । अवधारण विधिपूर्वक होता है। फिर कालद्रव्यके बहुप्रदेशित्वके प्रतिवेधके लिए यहाँ 'काय' का ग्रहण करना उपयुक्त है । जिस प्रकार अणुको एकप्रदेशी होनेसे अर्थात् द्वितीय आदि प्रदेश न होनेसे 'अप्रदेश' कहते हैं उसी तरह कालपरमाणु भी एकप्रदेशी होनेसे अप्रदेशी हैं। १७. सर्वज्ञ प्रतिपादित आहेत आगममें ये धर्म अधर्म आकाश आदि संज्ञाएँ सांकेतिक हैं, रूढ़ हैं। ६१८-२३. अथवा, इन संज्ञाओंको क्रियानिमित्तक भी कह सकते हैं। स्वयं क्रियापरिणत जीव और पुद्गलोंको जो सहायक हो (साचिव्यं दधातीति धर्मः) वह धर्म है। इससे विपरीत अर्थात् स्थितिमें सहायक अधर्म होता है। जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी अपनी पर्यायोंके साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपनेको भी प्रकाशित करे वह आकाश। अथवा, जो अन्य सब द्रव्योंको अवकाश दान दे वह आकाश । यद्यपि अलोकाकाशमें द्रव्योंका अवगाह न होनेसे यह लक्षण नहीं घटता तथापि शक्तिको दृष्टिसे उसमें भी आकाशव्यवहार होता ही है। जैसे अतिदूर भविष्यत् कालमें वर्तमानप्राप्तिकी योग्यताके कारण ही भविष्यत् व्यपदेश होता है उसी तरह अलोकाकाशमें अवगाही द्रव्योंके न होनेपर भी अवगाहनशक्तिके कारण अखंडद्रव्यप्रयुक्त आकाशव्यवहार हो जाता है। २४-२६. जैसे भा को करनेवाला भास्कर कहा जाता है उसी तरह जो भेद संघात और भेदसंघातसे पूरण और गलनको प्राप्त हों वे पुद्गल हैं। यह शब्द 'शवशयनं श्मसानम्' की तरह पृपोदरादिगणमें निष्पन्न होता है । परमाणुओंमें भी शक्तिकी अपेक्षा पूरण और गलन है तथा प्रतिक्षण अगुरुलधुगुणकृत गुणपरिणमन गुणवृद्धि और गुणहानि होती रहती है अतः उनमें भी पूरण और गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है। अथवा, पुरुप यानी जीव जिनको शरीर आहार विपय और इन्द्रिय-उपकरण आदिके रूपमें निगले-ग्रहण करं वे पुद्गल हैं । परमाणु भी स्कन्ध दशामें जीवोंके द्वारा निगले ही जाते हैं।
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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