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________________ ५२ ] पाँचवाँ अध्याय ६५५ २७. 'धर्माधर्माकाशपुङ्गलाः' यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्यप्रतिपत्ति के लिए है । इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूपसे परिणत जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थितिमें स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुद्गल इन्हें उकसाते नहीं हैं। इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है । यद्यपि इतरेतरयोग द्वन्द्वमें बहुवचन न्यायप्राप्त था पर समाहारमें समुदायकी प्रधानता होनेसे एकवचनसे ही कार्य चल जाता है, फिर भी जो बहुवचनका निर्देश किया गया है वह स्वातन्त्र्यका ज्ञापक है । जैसे जैनेन्द्र व्याकरण में 'हृतः ' । यहाँ 'हृत्' इस एक वचनसे कार्य चल सकता था फिर भी बहुवचनका निर्देश ज्ञापन करता है कि अनुक्तमें भी तद्धितीय प्रत्यय होता है । २८-३०. धर्म शब्दकी लोकमें प्रतिष्ठा है अतः सूत्र में धर्मका पहिले ग्रहण किया है । अधर्मद्रव्यसे लोककी पुरुषाकार आकृति की व्यवस्था बनती है अतः अधर्मका उसके अनन्तर ग्रहण किया है । यदि अधर्मद्रव्य न माना जाता तो जीव और पुद्गल समस्त आकाश अर्थात् अलोकाकाशमें भी जा पहुँचते, इस तरह लोकका कोई आकार ही नहीं बन पाता । अतः लोक- अलोक विभाग अधर्मद्रव्य के कारण ही बनता है । फिर अधर्म धर्मका प्रतिपक्षी है, अतः उसका धर्मके बाद ग्रहण करना उचित ही है । ९३१ - ३२. धर्म और अधर्मके द्वारा आकाशका परिच्छेद किया जाता है-लोक और अलोकके रूपमें । जहाँ तक धर्म और अधर्म हैं वह लोक, आगेका अलोक । अतः धर्म और अधर्म के बाद आकाशको ग्रहण किया है । फिर अमूर्तरूपसे आकाश धर्म और अधर्म में सजातीयपना भी है । ३३. आकाश में पुल अवकाश पाते हैं, अतः आकाशके पास पुगलका ग्रहण किया गया है । § ३४-३५. प्रश्न - आकाशका ग्रहण सर्वप्रथम करना चाहिए क्योंकि वह धर्म और अधर्म आदिका आधार है ? उत्तर- लोककी यह रचना अनादिसे है, इसमें आधाराधेयभावमूलक पौर्वापर्य नहीं है। आदिवाले दही और कुंड आदिमें ही आधाराधेयमूलक पौर्वापर्य होता । यद्यपि आर्ष ग्रन्थमें यह बताया है कि - " आकाश स्वप्रतिष्ठ है, आकाशमें तनुवातवलय, तनुवातवलयमें घनवातवलय, धनवातवलय में घनोदधिवातवलय आधेय रूपसे है" इत्यादि; फिर भी कोई विरोध नहीं है; क्योंकि यदि आधाराधेयभावका सर्वथा निषेध किया जाता तो विरोध होता । परन्तु द्रव्यार्थिक की प्रधानतासे सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं, अतएव आधाराधेयभाव नहीं रहनेपर भी पर्यायार्थिककी प्रधानतामें आधाराधेयभाव है ही । इसी तरह व्यवहार नयसे आकाशको आधार और अन्य द्रव्योंको आधेय कहते ही हैं। एवंभूतनयसे अनादि पारिणामिक लोकरचनाकी अपेक्षा आधाराधेयभाव नहीं भी है । व्यवहारमें तनुवातवलयका आधार आकाशको माननेपर आकाशके भी अन्य आधारकी कल्पना करके अनवस्था दूषण नहीं आ सकता; क्योंकि आकाश सर्वगत और अनन्त है, अतः उसके अन्य आधारकी कल्पना करना उचित नहीं है । असर्वगत सान्त मूर्तिमान् और सावयव पदार्थोंमें ही अन्य आधार की कल्पना हो सकती है । ३६. यद्यपि काल भी अजीव है और भाष्य में अनेक बार छह द्रव्योंका कथन भी किया है, पर इसका लक्षण आगे किया है अतः उसे यहाँ नहीं गिनाया है । द्रव्याणि ॥ २ ॥ उपर्युक्त धर्माधर्मादि द्रव्य हैं । ६१. स्व और पर कारणोंसे होनेवाली उत्पाद और व्यय रूप पर्यायोंको जो प्राप्त हो तथा पर्यायोंसे जो प्राप्त होता हो वह द्रव्य है । द्रव्य क्षेत्र काल और भाव रूप बाह्य प्रत्यय पर हैं
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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