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________________ पाँचवाँ अध्याय अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १ ॥ धर्म अधर्म आकाश और पुद्गल अजीव भी हैं और काय अर्थात् बहुप्रदेशी भी । ९१-५. 'अजीव जो काय' इस प्रकार समानाधिकरणा वृत्ति यहाँ समझनी चाहिए । अजीव शब्दकी कालमें तथा काय शब्दकी जीवमें भी वृत्ति होनेसे यहाँ परस्पर व्यभिचार है अतः नीलोत्पलकी तरह समानाधिकरण वृत्ति है । यदि भिन्नअधिकरणरूप वृत्ति मानी जाय तो 'राजाका पुरुष राजपुरुष' इसकी तरह अजीवोंका काय इस प्रकारके सर्वथा भेदका प्रसंग आयगा । यद्यपि 'सुवर्णकी अंगूठी' यहाँ सुवर्ण और अंगूठीमें अभेद रहने पर भी भेदमूलक षष्ठीसमास देखा गया है तो भी जैसे 'सुवर्णकी अंगूठी' इस स्थलपर सुवर्णका प्रयोग चाँदी आदिकी निवृत्ति के लिए है कि यह अंगूठी सुवर्णकी है, चाँदी आादिकी नहीं है और न मासा रत्ती आदिकी, उस तरह 'अजीवके काय' यहाँ किसी पदार्थान्तरकी निवृत्ति नहीं करनी है । अथवा, भिन्नाधिकरण भी वृत्ति माननेमें कोई विरोध नहीं है । जीव भी काय है क्योंकि पाँच अस्तिकायोंमें जीवका भी नाम है । इसलिए उसकी निवृत्तिके लिए यहाँ अजीव शब्दका प्रयोग किया गया है कि अजीवके काय, जीवके नहीं । 'सुवर्णकी अंगूठी' यहाँ भी सुवर्ण द्रव्यसे अंगूठी पर्याय में संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिके भेदसे भेद है ही । यदि सुवर्ण और अंगूठी में सर्वथा अभेद माना जाय तो सुवर्णकी कुंडल आदि पर्यायोंमें वृत्ति नहीं होनी चाहिए, या सुवर्णकी तरह अंगुलीयकत्व (अंगूठीपना) कुंडल आदिमें भी पाया जाना चाहिए। इसीलिए अन्य चाँदी आदिकी निवृत्तिके लिए 'सुवर्ण' शब्दका प्रयोग किया गया है । सर्वथा अभेदमें 'सुवर्णकी अंगूठी' यह भेद प्रयोग ही नहीं हो सकता। 'अजीवकायाः' यहाँ काय शब्द प्रदेशवाचक है । धर्मादि द्रव्य अपने प्रदेशोंसे संज्ञा लक्षण और प्रयोजन आदिकी दृष्टिसे भिन्न भी हैं । यदि सर्वथा अभेद हो तो जैसे धर्मादि एक हैं उसी तरह प्रदेशोंमें भी एकत्व होना चाहिए, अथवा जैसे प्रदेश बहुत हैं उसी तरह धर्मादिकमें भी बहुत्व होना चाहिए । इसीलिए अन्यनिवृत्तिके लिए 'अजीव शब्दका प्रयोग किया है कि अजीवोंके काय, न कि जीवके । यदि सर्वथा एकत्व होता तो ‘अजीवके काय' यह भेदव्यवहार ही नहीं हो सकता था । 'शिलापुत्रकका शरीर या राहुका सिर' इन प्रयोगों में भी कथचिद् भेद है ही । बुद्धि शब्द और प्रयोजन आदिके भेदसे उनमें भेद है । इसलिए यहाँ भी अन्य निवृत्तिके लिए शिलापुत्रक या राहु शब्द दिया जाता है । अर्थात् शिलापुत्रकका यह शरीर है अन्य मनुष्य आदिका नहीं, राहुका यह शिर है अन्य का नहीं । सर्वथा अभेद में अन्यनिवृत्तिकी आवश्यकता ही नहीं रह जाती जैसे सुवर्णका सुवर्ण या घटका घट । ९६. 'न जीवः अजीवः' कहनेसे अजीवको केवल जीवाभाव रूप ही नहीं समझना चाहिए, किन्तु जैसे 'अनश्व' कहने से घोड़ेके निषेधके साथ ही घोड़े सरीखे अन्य प्राणी ( गधा आदि ) का प्रत्यय होता है उसी तरह अजीवसे भी जीवसे भिन्न अन्य अचेतन पदार्थका संप्रत्यय होता है। जड़ और चेतनमें सत्त्व द्रव्यत्व आदिकी दृष्टिसे सादृश्य है ही । एक 'सत्' पदार्थ ही पररूप आदिकी अपेक्षा अभावप्रत्ययका विषय होता है । § 6-5. काय शब्दमें 'कायकी तरह काय' यह सादृश्य अर्थ अन्तर्भूत है । अर्थात् जैसे काय - शरीर औदारिकादि शरीरनामकर्मके उदयसे अनेक पुगल-परमाणुओं से संचित
SR No.022021
Book TitleTattvarth Varttikam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2009
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size16 MB
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