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________________ 83/श्री दान-प्रदीप बढ़ी। निर्विघ्न रूप से वह उद्यानरक्षक के पास पहुँची। उसे देखकर संभ्रम होते हुए उद्यानरक्षक ने कहा-“हे भाग्यवंती! तुम अभी इस समय कैसे आयी?" उसने जवाब दिया-"मैंने तुम्हारे पास प्रतिज्ञा की थी। अतः वचन रूपी पाश से बंधी हुई मैं तुम्हारे पास आयी हूं।" ___ यह सुनकर विस्मित होते हुए उसने पूछा-"तेरे पति ने तुझे कैसे आने दिया?" उसने शुरु से अंत तक व मार्ग की सारी बात बता दी। वृत्तान्त सुनकर उसने विचार किया कि अहो! यह स्त्री होते हुए भी अपनी की हुई प्रतिज्ञा में कितनी दृढ़ है! इसने अपने वचन-पालन के लिए कैसा दुष्कर कार्य साधा है! इसके पति, चोरों व राक्षस ने शक्तिमान होते हुए भी इसे मेरे पास आने की अनुमति प्रदान की, तो फिर मैं निर्मल गुणों से श्रेष्ठ व अनिन्द्य इस नारीरत्न का शील कैसे भंग कर सकता हूं? इस प्रकार विचार करके उसके चारित्रगुण से चमत्कृत होते हुए उस उद्यानपालक ने उसे बहन बनाकर उसे वापस घर जाने की अनुमति प्रदान की। वापस लौटते हुए राक्षस व चोरों ने भी उसी प्रकार विचार करते हुए उसे छोड़ दिया। अतः वह बाहरी व आन्तरिक शुद्धि के साथ पुनः घर लौट आयी। उसका सारा वृत्तान्त सुनकर उसका पति भी अत्यन्त हर्षित हुआ और उसे घर की स्वामिनी बना दिया। गुणों के प्रति किसको आदरभाव नहीं होता? अर्थात् होता ही है। इस प्रकार की कथा सुनाकर अभयकुमार ने कहा-"अब मैं आप सभी से पूछता हूं कि उसके पति, चोर, राक्षस व उद्यानपालक में से किसने दुष्कर कार्य किया? बताओ।" यह सुनकर जो स्त्री पर इर्ष्याभाव धारण करते थे, उन्होंने पति को, क्षुधातुरों ने राक्षस को, कामियों ने माली को और उस चाण्डाल ने चोर को दुष्कर कार्य करनेवाला बताया। जवाब सुनकर अभय पहचान गया कि यही चोर है, जिसने आम्रवृक्ष की डाली से आम चुराये हैं। उसने चाण्डाल को पकड़कर राजा को सौंप दिया। राजा ने चोर को धमकाकर सारा वृत्तान्त पूछा और चोर ने सारी हकीकत राजा के समक्ष बयान कर दी। राजा ने उससे कहा-"अगर तुम मुझे ये दोनों विद्याएँ सिखाओगे, तो मैं तुम्हें अभयदान दे दूंगा।" चोर ने सहमति में सिर हिलाया। राजा उससे विद्याा सीखने लगा। बार-बार बताने के बावजूद भी विद्या राजा के दिमाग में नहीं बैठी। राजा ने क्रोधित होते हुए चोर से कहा-"मुझे ये विद्याएँ क्यों नहीं चढ़ती?" मातंग (चण्डाल) ने कहा-“हे राजन्! आप विनय के बिना विद्या सीख रहे हैं। आप उच्च आसन पर विराजमान हो और मैं नीचे हूं।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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