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________________ 84/श्री दान-प्रदीप यह सुनते ही राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ। तुरन्त अपने आसन से नीचे उतरकर चाण्डाल को वहां बैठाया और स्वयं नीचे बैठे। फिर विद्या सीखने लगा। तुरन्त ही दोनों विद्याएँ राजा के मस्तिष्क में स्थिरता को प्राप्त हुई। __ अतः मैं कहता हूं कि विनय ही सर्व विद्याओं का स्थान है। विनयपूर्वक पढ़ी हुई विद्याएँ थोड़े समय में सिद्ध हो जाती हैं। बहुमान-श्रुतज्ञान ग्रहण करनेवाले शिष्य को गुरु का बहुमान करना चाहिए। पण्डित पुरुषों ने हृदय के भक्तिभाव को बहुमान कहा है। गुरु का बहुमान करते हुए ग्रहण किया गया श्रुतज्ञान शिष्यों को उत्तरोत्तर उत्कृष्ट फल-सम्पत्ति प्राप्त करवाता है। विनय व बहुमान के चार भांगे होते हैं-1. किसी शिष्य में विनय व बहुमान दोनों होते हैं, 2. किसी में केवल विनय होता है, 3. किसी में केवल बहुमान होता है और 4. किसी में दोनों ही नहीं होते। बहुमान के बिना अकेला विनय निष्फल होता है, क्योंकि बाह्य विधि की अपेक्षा अन्तरंग विधि बलवान होती है। इस विषय में एक दृष्टान्त है किसी पर्वत की गुफा में शिव नामक यक्ष की प्रतिमा थी। वह प्रभावी होने से लोक में प्रसिद्ध थी। उस मूर्ति को हमेशा एक ब्राह्मण व एक भील पूजते थे। बहुमान न होने पर भी ब्राह्मण बाह्य रूप से अत्यधिक विनय करता था। वह स्नान द्वारा शरीर स्वच्छ करके, धोये हुए वस्त्र पहनकर, निर्मल जल से मूर्ति को स्नान करवाकर अनेक प्रकार के पुष्पों से पूजा करके नयी-नयी स्तुतियों के द्वारा स्तुति करता था। पर वह भील शुद्ध भाव से (बहुमानपूर्वक) शिव की पूजा करता था। वह हमेशा प्रातःकाल होते ही मुँह में पानी भरकर शिव मन्दिर में आकर शिव को नमस्कार करके मुख में भरे हुए पानी के द्वारा शिव को स्नान करवाता था। पर उसकी भक्ति अकृत्रिम थी। अतः उससे प्रसन्न होकर शिव एकान्त में उसके सुख-दुःखादि की बातें किया करता था। उसको इस प्रकार की बातें करते हुए देखकर ब्राह्मण को उस पर द्वेष हआ। अगले दिन हमेशा की तरह वह यक्ष की पजा करके उस पर क्रोध करते हुए तिरस्कारपूर्वक कहने लगा-“हे यक्ष! तेरा सेवक भील जैसा नीच है, वैसा ही तूं भी है, क्योंकि भक्तिमान व उच्च जातियुक्त मुझ ब्राह्मण को छोड़कर तूं उससे बातें करता है।" तब यक्ष ने उससे कहा-"जितना बहुमान वह मेरा करता है, उतना बहुमान तुझमें मेरे प्रति नहीं है। इस विषय में तेरा और उसका अन्तर तूं कल सुबह जानेगा।" यह सुनकर यक्ष की वाणी की अवज्ञा करते हुए ब्राह्मण अपने घर चला गया। अब यक्ष ने उन दोनों की परीक्षा करने के लिए रात्रि के समय अपना एक नेत्र उखाड़ लिया।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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