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________________ 79/श्री दान-प्रदीप उद्यम करके पढ़ने पर भी पूर्वभवों के कर्म अवशिष्ट रहने के कारण किसी भी कला को सीखने में समर्थ न बन पाया। फिर भी उसने पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ा, क्योंकि उद्यम ही बुद्धि रूपी लता को वृद्धि प्राप्त करवाने में नवीन मेघ के समान है। एक बार निष्पाप जिनागम का अभ्यास करते हुए शुभध्यान में आरोहण करने से उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वभव की तरह वह इस भव में भी ज्ञान व ज्ञानियों का बहुमान आदि करने लगा, उनकी सहायता करने लगा। क्रमप्राप्त वैराग्य से भावित होते हुए उसने चारित्र ग्रहण किया। जिस प्रकार प्रबल वायु के द्वारा मेघमण्डल क्षय को प्राप्त होता है, वैसे ही निरन्तर श्रुत के अभ्यास द्वारा उसका ज्ञानावरणीय कर्म क्षय को प्राप्त हुआ। अंगोपांग सहित समस्त श्रुत का अभ्यास करके पूर्वभव के दुष्कृत्यों का स्मरण करते हुए चिरकाल तक वह ज्ञानदान करने में सतत प्रयत्नशील रहा। अनुक्रम से ध्यान रूपी परशु के द्वारा चारों घाती कर्मों का क्षय करके ज्ञानदान के प्रभाव से कैवल्य लक्ष्मी को प्राप्त किया। देव-दुन्दुभि के नाद से आकाश को संपूरित करते हुए देवताओं ने पुष्पवृष्टिपूर्वक स्वर्णमय कमल की विकर्वणा की। उस कमल पर विराजकर उन ज्ञानी ने इस प्रकार की धर्मदेशना दी-"इस जगत में सभी प्राणी सुख की वांछा करते हैं। वह सुख उत्तम चारित्र लेने से ही प्राप्त हो सकता है और चारित्र ज्ञान से प्राप्त होता है। ज्ञान का सम्यग् प्रकार से दान करने पर ही ज्ञानियों को आगे भी ज्ञान की ही प्राप्ति होती है। अतः हे पण्डितों! विधिपूर्वक ज्ञान का दान करने में ही उद्यम करना चाहिए। ऐसा करने से स्व–पर को अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। उस ज्ञान का दान दो प्रकार से हो सकता है-प्रथम तो सूत्र व अर्थ की वाचना देने से तथा पढ़ने से प्राप्त हो सकता है और द्वितीय ज्ञानियों को ज्ञान के उपकरण व अन्नादि देकर सहायता करने से भी प्राप्त हो सकता है। ज्ञान की आराधना के इच्छुक पुरुषों को ज्ञान के आदान-प्रदान में आठ प्रकार के कालादि आचार का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए। इस विषय में आगमों में कहा है : काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिन्हवणे। वंजण अत्थ तदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो।। अर्थ :-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय-ये आठ ज्ञान के आचार हैं। ___ काल-जिन अंगोपांग का जो काल जिनेश्वरों ने कहा है, उन्हें उसी काल में पढ़ने से बुद्धिमान पुरुष श्रुत का आराधक कहलाता है। कृषि व औषधादि की तरह योग्य काल में श्रुत का सेवन-अध्ययन किया जाय, तो वह समस्त रूप में फल-प्रदाता बनता है अन्यथा विपरीत फल को देनेवाला बनता है। अयोग्य काल में श्रुत का अभ्यास करने पर न केवल फल का अभाव होता है, बल्कि जिनेश्वरों की आज्ञा का लोप होने से इहलोक व परलोक
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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